2122/1122/1122/22
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ऐसा लगता है फ़क़त ख़ार सँभाले हुए हैं,
शाख़ें, पतझड़ में भी क़िरदार सँभाले हुए हैं.
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जिस्म क्या है मेरे बचपन की कोई गुल्लक है
ज़ह’न-ओ-दिल आज भी कलदार सँभाले हुए हैं.
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आँधियाँ ऐसी कि सर ही न रहे शानों पर,
और हम ऐसे में दस्तार सँभाले हुए हैं.
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वक़्त वो और था; तब जान से प्यारे थे ख़ुतूत
अब ये लगता है कि बेकार सँभाले हुए हैं.
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टूटी कश्ती का सफ़र बीच में कुछ छोड़ गए,
और कुछ आज भी पतवार सँभाले हुए हैं.
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मुझ को मिल जाये अगर तू, मैं लिपट कर रो लूँ,
आँखें अब तक तेरा इन्कार सँभाले हुए हैं.
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तेरी दुनिया के टिके रहने में तेरा क्या हाथ?
इस को तो “नूर” से ख़ुद्दार सँभाले हुए हैं.
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निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. शिज्जू भाई
शुक्रिया आ. अनुराग जी
बेहतरीन आ. निलेश भाई हमेशा की तरह लाजवाब ग़ज़ल है, शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएँ
शुक्रिया आ. समर कबीर सर
शुक्रिया आ. सुशिल सरना जी
मुझ को मिल जाये अगर तू, मैं लिपट कर रो लूँ,
आँखें अब तक तेरा इन्कार सँभाले हुए हैं.
वाह आदरणीय नीलेश जी बहुत खूब। ... आपने इस ग़ज़ल में बन्दे का दिल जीत लिया ... शे'र दर शे'र के लिए मुबारकबाद कबूल फरमाएं।
शुक्रिया आ. दिनेश कुमार जी ..
आभार
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