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ख़्वाब ...

नींद से आगे की मंज़िल
भला
कौन देख पाया है

बस
टूटे हुए ख़्वाबों की
बिखरी हुई
किर्चियाँ हैं
अफ़सुर्दा सी राहें हैं
सहर का ख़ौफ़ है
सिर्फ
मोड़ ही मोड़ हैं


न शब् के साथ
न सहर के बाद
कौन जान पाया है
कब आता है
कब चला जाता है
ज़िस्म की
रगों में
हकीकत सा बहता है
अर्श और फ़र्श का
फ़र्क मिटा जाता है
सहर से पहले
जीता है
सहर से पहले ही
मर जाता है
अधूरी सी चाहतों को
पूरा करने की
तमन्नाओं की
गठरी लिए
इंसान का साया
जीने का

ख़्वाब

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Views: 440

Comment

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Comment by Sushil Sarna on March 30, 2017 at 6:45pm

आदरणीय  सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप'जी प्रस्तुति को अपनी मन मुदित करती प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार। आदरणीय कुछ पारिवारिक व्यस्तताओं के कारण मैं मंच पूर्ण रूप से सक्रिय नहीं हो पा रहा हूँ इसी कारण मैं आपकी रचनाओं से वंचित रहा जिसका मुझे दुःख है। मैं शीघ्र ही आपके दर पर आऊंगा। स्नेह के लिए हार्दिक आभार।

Comment by Sushil Sarna on March 30, 2017 at 6:43pm

आदरणीय समीर कबीर साहिब रचना में निहित भावों को अपना आत्मीय स्नेह देने का दिल से आभार।

Comment by नाथ सोनांचली on March 29, 2017 at 7:38am
आद0 सुशील सरना जी सादर अभिवादन, हमेशा की तरह एक उम्दा सृजन,बधाई आपको।
एक प्रेमपूर्वक शिकायत है आपसे, मेरी रचनाओं पर आपका आशीष नही मिल पाता, मैं भी अपनी रचनाओं पर आपके माध्यम से प्रशंशा, सुझाव और आलोचना पाने को आतुर रहता हूँ।
Comment by Samar kabeer on March 28, 2017 at 9:49pm
जनाब सुशील सरना जी आदाब,वाह बहुत ख़ूब, हमेशा की तरह शानदार कविता,इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Sushil Sarna on March 28, 2017 at 2:50pm

आ.मोहित मुक्त जी प्रस्तुति में निहित भावों को अपने स्नेह से अलंकृत करने का हार्दिक आभार। 

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