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किस ओर जाएँ हम कि हमें रास्ता मिले

221 2121 1221 212

किस ओर जाएँ हम कि हमें रास्ता मिले

फ़िरक़ापरस्ती का न कहीं फन उठा मिले

 

दिल इस जहान का अभी इतना बड़ा नहीं

हर हक़बयानी पर मेरा ही सर झुका मिले

 

नाज़ुक है मसअला ये अक़ीदत का दोस्तो

आईना जो दिखाऊँ तो बस बद्दुआ मिले

 

ख़्वाहिश कहाँ रही मुझे महलों की ऐ ख़ुदा

बस ज़ेरे-आसमाँ तेरा ही आसरा मिले

 

ढहने लगी हैं आज अदब की इमारतें

इतिहास मलबे में यहाँ कुचला हुआ मिले

 

धरती थमी-थमी है फलक भी झुका-झुका

मैं मुंतज़िर हूँ अब कि कज़ा मुझसे आ मिले

 

इंसान खो गया कहीं आभासी दुनिया में

अब तर्जनी से अपनी, सुकूँ ढूँढता मिले

 

Meaning:

फ़िरक़ापरस्ती - सम्प्रदायवाद, हक़बयानी – सच कहना, अक़ीदत - श्रद्धा,

ज़ेरे-आसमाँ - आसमाँ के नीचे, अदब – साहित्य, मुंतज़िर – इंतज़ार में, कज़ा – मौत

-मौलिक व अप्रकाशित

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on November 23, 2016 at 3:39pm

आ. सुशील सरना सर आपका हार्दिक आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on November 23, 2016 at 3:39pm

आ. सुरेन्द्र नाथ सिंह जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on November 23, 2016 at 3:38pm

बहुत बहुत शुक्रिया आ. तेजवीर सिंह सर 

Comment by Samar kabeer on November 23, 2016 at 3:32pm
जनाब शिज्जु शकूर साहिब आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
दूसरे शैर के सानी मिसरे में'हैरत न होगी'को "हैरत न करना"उचित होगा ?
मेरी बात को अन्यथा न लें,इस ग़ज़ल की ये कमज़ोरी है कि इसके पांच अशआर में 'न'की तकरार है,सिर्फ़ दो शैर इससे बचे हुए हैं,हालांकि ये कोई दोष नहीं,फिर भी इससे बचना चाहिये था ।
आख़री शैर में 'तर्जनी'का अर्थ क्या है ?
Comment by Sushil Sarna on November 23, 2016 at 2:40pm

ढहने लगी हैं आज अदब की इमारतें
ऐसा न हो कि मलबे में तू भी दबा मिले
वाह आदरणीय शिज्जु शकूर साहिब गज़ब के अहसास पिरोये हैं आपने इस ग़ज़ल में। इस बेहतरीन ग़ज़ल के सृजन के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें।

Comment by नाथ सोनांचली on November 23, 2016 at 2:34pm
आदरणीय शिज्जू 'शकूर' जी सादर अभिवादन। आपकी गजल बेहतरीन बन पड़ी है। मेरी दिली मुबारकबाद कबूल फरमाएं
Comment by TEJ VEER SINGH on November 23, 2016 at 12:37pm

हार्दिक बधाई आदरणीय शिज्जु "शकूर" जी।बेहतरीन गज़ल।

ढहने लगी हैं आज अदब की इमारतें

ऐसा न हो कि मलबे में तू भी दबा मिले|

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