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चाहना उसकी मगर गल जाए वो...ग़ज़ल//डॉ. प्राची

वक्त के साँचे में जो ढल जाए वो।
फिर कहीं ना आपको खल जाए वो।

है उसे सौगन्ध पिघलेगा नहीं
चाहना उसकी मगर गल जाए वो।

सिसकियाँ भरती रही वो लाश बन
वक्त से कहती रही टल जाए वो।

आँधियाँ बन खुद बुझाते हो जिसे
कह रहे हो दीप सा जल जाए वो।

ज़िद तुम्हारी है हवा को बाँधना
दोष मत देना अगर छल जाए वो।

मौलिक और अप्रकाशित
डॉ.प्राची सिंह

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Comment by Samar kabeer on November 10, 2016 at 8:45pm
मोहतरमा डॉ.प्राची सिंह साहिबा आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
दूसरे शैर में मफ़हूम साफ़ नहीं है,देखियेगा ।
आपने ग़ज़ल के साथ अरकान नहीं लिखे,आप तो सीनियर सदस्य हैं,आपको इसका ख़याल रखना चाहिये ।
Comment by Sushil Sarna on November 10, 2016 at 4:05pm

आँधियाँ बन खुद बुझाते हो जिसे
कह रहे हो दीप सा जल जाए वो।

ज़िद तुम्हारी है हवा को बाँधना
दोष मत देना अगर छल जाए वो।

बहुत सुंदर अहसास आदरणीया डॉ. प्राची सिंह जी। ... हार्दिक बधाई स्वीकार करें इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 10, 2016 at 3:06pm

आदरनीया प्राची जी , खूब सूरत गज़ल के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ , सभी अशआर अच्छे लगे ।

कृपया ध्यान दे...

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