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ताटंक छंद
---
1
बुरे समय का खेला चलता, गुण की कीमत जाती है
लोग बुरे आगे बढ़ते हैं,अच्छों की मत जाती है
मक्कारी के घर भरते हैं,सच्चाई घबराई है
जनता देखो भूखी मरती,कुत्ता खात मलाई है।
2.
बहा पसीना खेत कमाता, पोषण सबका होता है
खुद का बच्चा तड़प तड़प कर, भूखा घर में सोता है
कुदरत ने तो मारा उसको,करता तंत्र पिसाई है
जनता देखो भूखी मरती,कुत्ता खात मलाई है।

3
जो करते हैं काम अनेकों ,नाम कभी क्या होता है,
काट लफंगे खा जाते हैं,फसल और ही बोता है
पोश सफेद बना जो उसमें,देता चोर दिखाई है
जनता देखो भूखी मरती,कुत्ता खात मलाई है।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on August 18, 2016 at 7:35am
आदरणीय गोपाल सर छ्न्द पर प्रयास आपको ठीक लगा।यह सार्थक हुआ।सादर हार्दिक आभार।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 17, 2016 at 8:32pm

आ० सतविंदर जी . छंद का निर्वाह बढ़िया हुआ है , बधाई

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on August 17, 2016 at 11:46am
प्रयास की सराहना के लिए सादर आभार सँग नमन आदरणीया कल्पना दीदी।
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on August 17, 2016 at 11:45am
अनुमोदन एवं प्रयास की सराहना के लिए सादर हार्दिक आभार आदरणीय समर कबीर साहब।सादर नमन
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 17, 2016 at 8:55am
बढ़िया छंद ।। हार्दिक बधाई आदरणीय सतविंदर भैया
Comment by Samar kabeer on August 16, 2016 at 11:02pm
जनाब सतविंदर कुमार जी आदाब,बहुत अच्छे छंद लिखे हैं आपने,आपकी बात दिल को छू रही है ,इस शानदार प्रस्तुति के लिये दिल से बधाई स्वीकार करें ।

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