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भ्रम ....

कितनी देर तक
तुम अपने जाने से पहले
मुझे ढाढस बंधाते रहे
मेरी अनुनय विनय को
अपनी मजबूरियों के बोझ से
बार बार दबाते रहे
तुम्हारे दो टूक शब्दों का
मुझपर क्या असर होगा
तुमने एक बार भी न सोचा
बस कह दिया
मुझे जाना होगा
कब आना हो
कह नहीं सकता

मैं अबोध अंजान
क्या करती
सिर हिला दिया
नज़रें  झुका ली
अपनी व्यथा
पलकों में छुपा ली
तुम्हारे कठोर शब्दों का भावार्थ
मैं न समझ पाई
हौले से
आँखों में देखकर
अपनी नमनाक  नज़रों से
कह दिया
मैं इंतज़ार करूंगी

अधरों पर
अपना स्पर्श दे
तुम चले गए
जानती हूँ
तुम नहीं आओगे
फिर भी
न जाने क्यूँ
मैं तुम्हारे भ्रम में
आज तक जीती हूँ
तुम्हारे झूठे
आश्वासनों के धागों से
इंतज़ार के पल सीती हूँ
मैं नारी हूँ
भ्रम को सत्य मान
आहटों को संजोती हूँ
संग अपनी पागल आँखों के
मैं न जगती हूँ
न सोती हूँ

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on August 16, 2016 at 5:05pm

आदरणीय गिरिराज जी भाई साहिब आपकी आत्मीय प्रशंसा का दिल से आभार और आभार आपकी पैनी नज़र और सुझाव का। गूगल टंकण में बावज़ूद सजगता के मात्रिक त्रुटि हो ही जाती है जिसका उदाहरण नमनाक है  .... आप जैसे रहबर हों तो चूक भी घबरा जाती है  .... मैं अभी संशोधित कर पुनः प्रेषित करता हूँ। आपका तहे दिल से शुक्रिया। 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 16, 2016 at 4:02pm

आदरणीय सुशील भाई , बहुत सुन्दर भाव पूर्न रच ना हुई है । आपको हार्दिक बधाइयाँ ।

नज़र झुका ली   को  नज़रें झुका लीं

और नामनाक  को नमनाक करना उचित रहेगा ।

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