उनकी शाम दे दो ....
आज
सहर में अजीब उजास है
हर शजर पर
समर के मेले हैं
सबा में अजीब सी
मदहोशी है
साँझ के कानों में
तारीक की सरगोशी है
शायद किसी को
मेरी तन्हाई पे
तरस आया है
किसके हैं लम्स
कौन मेरे करीब आया है
मुद्दतों की नमी ने
आज सब्र पाया है
लम्हे रुके से लगते हैं
अब्र झुके झुके लगते हैं
देखो ! तरीक के कन्धों पे
शाम झुकी है
सहर भी कुछ रुकी रुकी है
पसरती सम्तों में
पसरती तन्हाईयों को
अब तो विराम दे दो
बहुत सहा दर्द हिज्र का
अब तो आराम दे दो
लौट भी आओ
कि *मुज़्तरिब इन साँसों को (*मुज़्तरिब=बैचैन)
उनकी शाम दे दो
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सुरेश कुमार 'कल्याण' जी प्रस्तुति को अपने स्नेहिल शब्दों से मान देने का हार्दिक आभार।
आदरणीय shree suneel जी प्रस्तुति को अपने स्नेहिल शब्दों से मान देने का तहे दिल से शुक्रिया।
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