हर कविता मे कुछ अक्षरढूँढती रहती हैं अांखेजो नितांत अपने से लगें
कभी कभी मिल् भी जाते हैंऐसे ही कभी हाशिए के इधर या उधरजैसे किसी बड़े कद कोमिल् जाती हैं बेलफजी उपमाएंवो उपमाएं जो उघाड़ कर रख देसमाज की सभ्यता के पैबंदसंस्कृति- संस्कारों के संस्करणढोल पीट करें पुनर्जीवितविस्मरणीय संस्मरणढूँढती रहती हैं अांखेहर कविता मे कुछ अक्षरजो कह नहीं पाती जुबानकभी कभी मिल् भी जाते हैंऐसे ही कभी हाशिये के इधर उधरयूँ ही पसरे हुए सेजिनकी नहीं होती कुछ अहमियतठीक ऐसे ही जैसे नहीं होती अाधी अाबादी मेकितने ही सरों की कोई शख्शियतकहना चाहते हैं क्या कुछ पर् नहीं कहतेसहना नहीं चाहते क्या कुछ पर् क्या नहीं सहतेढूँढती रहती हैं अांखेहर कविता मे कुछ अक्षरजो नितांत अपने लिए होवैसे ही जैसे किसी उस क्षण जैसे होजो बस केवल अपने साथ गुज़ारा होजब बादल से भी बहका मन अवारा होनिर्जन घाटी मे स्वंय को स्वंय पुकारा होपूरा गगन अंधेरा हो बस केवल ध्रुवतारा हो
Comment
तहे दिल से शुक्रिया
वाह ! बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना हुई है आदरणीया अमिता तिवारी जी. सादर.
"आपको पसंद आई .........तहे दिल से शुक्रिया
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