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वाह.... जनाब समर कबीर साहब क्या लाजवाब तज़मीन बर तज़मीन कही आपने, बहुत मन मोहक विधा है बस जी मे आता है पढ़ते रहो (मिठास घुलती और बढ़ती जा रही थी) आपने इस विधा की जो जानकारी दी उसके लिए बहुत शुक्रिया .... जैसा की आपने बताया हिन्दुस्तान में तज़मीन तो कही गई लेकिन तज़मीन बर तज़मीन आपके वालिद-ए-मरहूम हज़रत सय्यद रफ़ीक़ अहमद "क़मर" उज्जैनी साहिब ने पहली बार कही और इसके बाद उन्हीं के नक़्श-ए-क़दम पर चलते हुए आपने इस विधा को आगे बढ़ाया अल्लाह आपके अब्बा मरहूम को जन्नत नसीब फरमाये .... उम्मीद है आगे भी तज़मीन बर तज़मीन पढ़ने को मिलेगी इंतज़ार रहेगा ....अस्सलामो अलैकुम
वाहह आदरणीय ...बहुत ज़्यादा तो नही जनता लेकिन पढ़ के बहुत अच्छा लगा
ओह ! कमाल !! फिर कमाल पर एक और कमाल !!!
आदरणीय समर साहब, इस विधा की खूबसूरती दो तरह के विचारों को सिंक्रोनाइज़्ड करने में है आपकी इस प्रस्तुति में तो तीन-तीन विचार एक साथ नत्थी हुए हैं. और क्या आवृति बनी है ! बहुत खूब, बहुत खूब !
सादर
आदरणीय समर कबीर जी , इस सुन्दर विधा से हमें मिलवाने के लिए आपका धन्यवाद ,इसकी शुरूआत आपके वालिद साहेब ने की थी ये सुनकर ख़ुशी और गर्व हुआ ,, आपको हार्दिक बधाई प्रेषित है इस रचना पर ..सादर
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