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ग़ज़ल.....अब आजमा लें दर्द को

इस्लाह के लिए विशेषकर काफ़िए को लेकर मन में शंकायें हैं 

2122       2122       2122       212

​क्यों नहीं अपनी रगों से हम निकालें दर्द को

है ग़मों की इन्तहां अब आजमा लें दर्द को

बात पहले प्यार से फिर भी नहीं जो मानता 
गेंद की तरहा हवा में फिर उछालें दर्द को

गर ग़मों की चाहतें हैं ज़िन्दगी भर साथ की 
हमसफ़र अपना बना उर में छुपा लें दर्द को

नफरतों के राज में क्या रीत उल्टी चल पड़ी 
दर्द खुद पे रो रहा चल आ संभालें दर्द को

गर खुदा मसरूफ है सुनता नहीं जो ये सदा 
अश्क की स्याही से पन्नों पे सजा लें दर्द को 

वक़्त के हैं हम सिकंदर अपना ये अंदाज़ है 
नींद 'ब्रज' आये तो धरती पे बिछा लें दर्द को 

(​मौलिक एवं अप्रकाशित) 

©बृजेश कुमार 'ब्रज'

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Comment by गिरिराज भंडारी on May 29, 2016 at 8:58pm

आदरणीय बृजेश भाई , ग़ज़ल बहुत अच्छी हुई है , मुबारकबाद कुबूल करें । आ. समर भाई जी की बातों का ख्याल करें ।

Comment by Samar kabeer on May 29, 2016 at 6:04pm
जनाब बृजेश कुमार'ब्रज'साहिब आदाब,बहुत अच्छी ग़ज़ल कही आपने,क़ाफ़िये भी सही हैं,दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ ।
पांचवें शैर के ऊला मिसरे में'मशरूफ'को "मसरूफ़"और इसी मिसरे के आख़री शब्द्'सदा'कर लें ।

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