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आईने तो आईने हैं ...

आईने तो आईने हैं ...

क्यूँ ,आखिर क्यूँ
आईनों से बात करते हो
ये करीबियां ये दूरियां
सब फ़िज़ूल हैं
कांच के टुकड़ों की तरह
टूटे हुए ज़ज़्बात
कब जुड़ पाते हैं
गर्द की आंधियां
ज़र्द पत्तों पर ही कहर ढाती हैं
बेज़ान जिस्मों पर
कब कोई तरस खाता है
बेमन से ही सही
हर कोई उसे ख़ाके सुपुर्द कर जाता है
कुछ भी तो हासिल न होगा
यूँ अपने अक्स से बात करके
हर सवाल मुंह चिढ़ाएगा
हर जवाब मुहं मोड़ जाएगा
आँखों का भीगापन
क्या आईना महसूस कर पाएगा
बारिशों के वो रूमानी लम्हात
क्या वो लौटा पायेगा
न न ! ये शायद मुमकिन नहीं
आईना कभी वो नहीं दिखाता
जो हम देखना चाहते हैं
सिर्फ हम ही हम
उसमें नज़र आते हैं
रूहानी अहसास गुम से रहते हैं
आईने तो आईने हैं
जिनमें कोई दर्दों गम नहीं होता
बस मजबूरी के पैरहन में
बेजान और बेआवाज़
अपने ही जिस्म
उसकी दहलीज़ पर
रक्स करते नज़र आते हैं
आईनें तो वहीं रहते हैं मगर
अक्स बदल जाते हैं
बाहर अब्र बरसें न बरसें
मगर अब्र आँखों के
आईनों में बरस जाते हैं

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on April 19, 2016 at 9:51pm

आदरणीय   SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR   जी प्रस्तुति में निहित भावों को मान देने का दिल से आभार। 

Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on April 19, 2016 at 5:35pm

कुछ भी तो हासिल न होगा 
यूँ अपने अक्स से बात करके 
हर सवाल मुंह चिढ़ाएगा 
हर जवाब मुहं मोड़ जाएगा 
आँखों का भीगापन 
क्या आईना महसूस कर पाएगा ..

सुशील जी ..बहुत सुन्दर भाव ..अच्छी रचना ...
भ्रमर ५

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