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वक्त आ रहा दुःस्वप्नों के सच होने का (ग़ज़ल)

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२

वक्त आ रहा दुःस्वप्नों के सच होने का

जागो साथी समय नहीं है ये सोने का

 

बेहद मेहनतकश है पूँजी का सेवक अब

जागो वरना वक्त न पाओगे रोने का

 

मज़लूमों की ख़ातिर लड़े न सत्ता से यदि

अर्थ क्या रहा हम सब के इंसाँ होने का

 

अपने पापों का प्रायश्चित करते हम सब

ठेका अगर न देते गंगा को धोने का

 

‘सज्जन’ की मत मानो पढ़ लो भगत सिंह को

वक्त आ गया फिर से बंदूकें बोने का

--------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on March 2, 2016 at 9:18am

वाह बहुत खूब

Comment by UMASHANKER MISHRA on March 1, 2016 at 11:03pm

सज्जन’ की मत मानो पढ़ लो भगत सिंह को

वक्त आ गया फिर से बंदूकें बोने का  बिलकुल सही कहा है वक्त आ गया फिर से बंदूकें बोने का ..धर्मेन्द्र कुमार जी हार्दिक बधाई 

Comment by Samar kabeer on March 1, 2016 at 9:07pm
जनाब धर्मेन्द्र कुमार साहिब आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल से नवाज़ा है आपने मंच को,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ ।
आप ग़ज़ल के अरकन लिखना भूल गए,इसकी वजह से ग़ज़ल पर कुछ कहना मुश्किल हो जाता है ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on March 1, 2016 at 8:47pm

सय्त कहा आदरनीय धर्मेन्द्र भाई जी आपने - बहुत अच्छी गज़ल कही है आपने , हार्दिक बधाई आपको ।

सज्जन’ की मत मानो पढ़ लो भगत सिंह को

वक्त आ गया फिर से बंदूकें बोने का  ----   बहुत खूब !

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