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महज इक आदमी है तू - ग़ज़ल-(लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' )

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भला तू देखता क्यों है महज इस आदमी का रंग
दिखाई क्यों न देता  है धवल  जो दोस्ती  का रंग /1

सुना  है  खूब  भाता है  तुझे  तो  रंग भड़कीला
मगर जादा बिखेरे है  छटा सुन सादगी का रंग/2

किसी को जाम भाता है किसी को शबनमी बँूदें
किसे मालूम है कैसा भला इस तिश्नगी का रंग/3

महज इक आदमी है तू न ही हिंदू न ही मुस्लिम
करे बदरंग क्यों बतला तू बँटकर जिंदगी का रंग/4

अगर बँटना ही है तुझको तो  बँट तू रोशनी जैसा
कि बँट  रंगीन  हो  जाता  हमेशा  रोशनी का रंग/5

अभी तक मीर गालिब थे  चले  आए हैं साहिर भी
‘मुसाफिर’ खूब महफिल में जमेगा शायरी का रंग/6

मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 27, 2016 at 11:29am

आ० कान्ता बहन उत्साहवर्धन के लिए आभार l

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 27, 2016 at 11:28am

आ० भाई तेजवीर जी ,उपस्तिति से ग़ज़ल का मान बढ़ने के लिए हार्दिक धन्यवाद l

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 27, 2016 at 11:27am

आ० भाई समर कबीर जी , आपकी उपस्थिति और प्रशंसा से लेखन से अस्वस्थ हुआ .इस स्नेह के लिए आभार l

Comment by kanta roy on January 26, 2016 at 11:57pm

सुना है खूब भाता है तुझे तो रंग भड़कीला
मगर जादा बिखेरे है छटा सुन सादगी का रंग-----वाह !!! क्या सादगी की रंगत आई है आपकी इस शानदार ग़ज़ल में। दाद कबूल फरमाइयेगा लक्ष्मण धामी जी

Comment by TEJ VEER SINGH on January 26, 2016 at 6:38pm

हार्दिक बधाई आदरणीय लक्ष्मण धामी जी!बहुत शान्दार गज़ल!

महज इक आदमी है तू न ही हिंदू न ही मुस्लिम
करे बदरंग क्यों बतला तू बँटकर जिंदगी का रंग/

Comment by Samar kabeer on January 26, 2016 at 5:30pm
जनाब लक्ष्मण धामी'मुसाफ़िर'जी आदाब,बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई,मुबारकबाद आपको !

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