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बहर - हज़ज़ मुसमन सालिम
न पूछोगे, सतायेंगी तुम्हें रुसवाइयाँ कब तक
अगर तुम जान लो पीछे चली परछाइयाँ कब तक
हैं उनकी कोशिशें तहज़ीब को बेशर्मियाँ बाटें
मुझे है फ़िक्र झेलेंगे अभी बेशर्मियाँ कब तक
ज़रा सा गौर फरमायें कसाफत है ये नदियों की ( कसाफत - गंदगी )
“समन्दर पर उठाओगे बताओ उँगलियाँ कब तक ”
शराफत की कबा कब तक बताओ बुजदिली ओढ़े
सहन करता रहेगा मुल्क ये शैतानियाँ कब तक
वो देखो हो रहा है अब उफ़क का रंग सिंदूरी
न सोचो तुम रुलायेंगी अभी तारीकियाँ कब तक
किसी की याद ख़्वाबों में ख़यालों में जो हो ज़िंदा
तो फिर सोचो सतायेंगी उसे तनहाइयाँ कब तक
जो नादानी में हैवानों से भी आगे रहे, उनकी ,
मैं आईने से पूछूँगा , सहें नादानियाँ कब तक
रसाई चीख़ की भी है नहीं जब आसमानों तक
यक़ीं वालों करोगे सोच लो ,शरगोशियाँ कब तक
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मौलिक एवँ अप्रकाशित
Comment
आदरणीय श्याम नारायण भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।
आदरणीय फूल सिंघ भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।
शराफत की कबा कब तक बताओ बुजदिली ओढ़े
सहन करता रहेगा मुल्क ये शैतानियाँ कब तक
लाज़वाब अशआर .... सलाम सर सलाम आपकी इस कलमगिरी को .... इस शानदार ग़ज़ल की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई कबूल फरमाएं आदरणीय गिरिराज भंडारी जी। दिल मोह लेती हैं आपकी ग़ज़लें।
बेहद उम्दा ...बहुत बहुत बधाई आप को आदरणीय | सादर |
अति सुंदर रचना आपको बहुत बहुत बधाई स्वीकार हो
अति सुंदर रचना आपको बहुत बहुत बधाई स्वीकार हो
आदरणीय समर कबीर भाई , सुखन नवाज़ी और हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ।
आपने सही कहा , मै सरगोशियाँ सुधार कर लूँगा । आपका आभार ।
आदरनीय तेज़ वीर भाई , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया आपका ।
हार्दिक बधाई आदरणीय गिरिराज भंडारी जी!बहुत शानदार गज़ल!एक एक शेर गज़ब ढा रहा है!पुनः बधाई!
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