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दो घड़ी करके तो सुहबत देखना (ग़ज़ल)

2122 2122 212

लाएगी इक दिन क़यामत,देखना..
जानलेवा है सियासत, देखना..

काम मुश्किल है बहुत संसार में,
दुसरे इंसाँ की बरकत देखना..

देख लेना खूँ-पसीना भी, अगर
आलिशाँ कोई इमारत देखना..

झाँक कर मेरी निगाहों में कभी,
आपसे कितनी है चाहत, देखना..

देखना हो गर खुदा का अक्स,तो
छोटे बच्चे की शरारत देखना..

'जय' न सिखला दे मुहब्बत,फिर कहो
दो घड़ी करके तो सुहबत देखना..
______________________________
(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Samar kabeer on December 7, 2015 at 10:19pm
जनाब जयनित कुमार जी,आदाब,ग़ज़ल आपकी बहुत ख़ूबसूरत है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।
एक मिसरे की तरफ़ आपका धयान आकर्षित करना चाहूँगा :-

"आलिशाँ कोई इमारत देखना"

इस मिसरे में आपने शब्द "आलिशाँ" बाँधा है जबकि सही शब्द है "आलीशान",मिसरा तो आपका बह्र में है लेकिन सही शब्द न लेने की वजह से बयान कमज़ोर हो रहा है,सुझाव के तौर पे एक मिसरा आपके सामने रख रहा हूँ :-

"जब कोई ऊँची इमारत देखना"

देख लीजियेगा ,बाक़ी शुभ शुभ ।
Comment by Ajay Kumar Sharma on December 7, 2015 at 6:24pm

जयनित जी गजल पढ़कर मन आनंदित हुआ। बहुत सुन्दर , बेहतरीन, बहुत बढ़िया।बधाई हो।

कृपया ध्यान दे...

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