आज सुबह उस चाय की गुमटी पर गरमा गरम चाय पीते-पीते कुछ मुखों से शब्दों के अग्नि-बाण से निकल रहे थे।
"अरे सुना तुमने, मज़हब की बंदिशें तोड़ ग़रीब दोस्त संतोष को मुस्लिम युवक रज़्ज़ाक ने कल मुखाग्नि दी !"
यह सुनकर एक पंडित जी बड़बड़ाने लगे-
"सारा अंतिम संस्कार अपवित्र हो गया, पता नहीं आत्मा को कैसे शान्ति मिलेगी ?"
इस पर एक शिक्षित युवक बोला-
"अरे ये सब वो धर्मान्तरित मुसलमान हैं जो आज भी अपने मूल धार्मिक कर्मकांड गर्व से करते हैं।"
तभी एक दाढ़ी वाले ने दाढ़ी पर हाथ फेरते हुये धीरे से कहा-
"सही कहते हैं हमारे चच्चाजान, इस्लाम संकट में है !"
एक छिछौरे ने चुटकी लेते हुए कहा-
"अरे, मुझे तो लगता है उसकी पत्नी से पहले से कोई यारी रही होगी !"
इन बातों को सुनकर चाय वाला बोला-"छोड़ो भी, रात गई, बात गई, आप तो चाय पियो। मेन बात तो समझ नईं रये, मूंह चलाये जा रये !"
मौलिक व अप्रकाशित
शेख़ शहज़ाद उस्मानी
शिवपुरी म.प्र.
Comment
वाह !! बहुत खूब लघुकथा हुई है आदरणीय शेख़ शहजाद उस्मानी जी। बधाई स्वीकार करें
धर्म से ऊपर इंसानियत के फ़र्ज़ को चित्रित करती एक सशक्त लघु कथा .... हार्दिक बधाई आदरणीय।
हार्दिक बधाई शेख उसमानी जी !बेहद सशक्त और समयानुकूल प्रस्तुति!
वाह ,वाह , अगर मेन बात ही समझ आ जाती तो ,सुख चैन आ जाता और मुद्दे नहीं बचते ,और अगर मुद्दे ही नहीं बचते तो ............,दिल और दिमाग़ को झंकझोरती कथा बनी है ,बधाई आपकोआदरणीय
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