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ग़ज़ल -- आईना बना ले मुझको .... दिनेश कुमार

2122-1122-1122-22

अहले महफ़िल की निग़ाहों से छुपा ले मुझको
मैं तेरा ख़्वाब हूँ आँखों में बसा ले मुझको

अपनी मंज़िल पे यकीनन मैं पहुंच जाऊँगा
कोई बस राहनुमाओं से बचा ले मुझको

रात कटती है न अब दिन ही मेरा तेरे बग़ैर
मेरी आवारगी नेजे पे उछाले मुझको

सबके दुखदर्द में जब मैंने मसीहाई की
इस ग़मे जाँ में कोई क्यूँ न सँभाले मुझको

शख़्सियत तेरी सँवारूंगा ये वादा है मिरा
अपनी तक़दीर का आईना बना ले मुझको

दिल के दरिया में ख़जाना है मुहब्बत का निहाँ
चश्म-ए-हसरत से कहो, ख़ूब खँगाले मुझको

आबजू होंठों पे है, अब्र का मैं लश्कर हूँ
कर दो बेशक ग़म-ए-सहरा के हवाले मुझको

ग़म की शिद्दत ने अँधेरों की थी रह दिखलाई
आज बेगाने से लगते हैं उजाले मुझको

ख़्वाहिशें जिस्म की पूरी ही नहीं होती 'दिनेश'
क़ैद-ए-हस्ती से कोई अब तो निकाले मुझको

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by शिज्जु "शकूर" on September 15, 2015 at 10:22pm
बेहतरीन आदरणीय दिनेश भाई खूबसूरत अशआर हुये हैं इस ग़ज़ल के लिये दिल सेसे बधाईबधाई

कृपया ध्यान दे...

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