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एक मुसाफ़िर नगर नगर में देखो घूमता, है बंजारा।

हर बस्ती की सरहद को बस छूके लौटता, है बंजारा।।  

रमें कहाँ पर बसे कहाँ पर स्थिर खुद को करे कहाँ पर।

डेरा अपना कहाँ जमाये ठौर ढूँढता, है बंजारा।।  

प्यासा प्यासा बादल बरखा को दर दर बस ढूँढ़ रहा है।

पानी पानी अपने जीवन का रस खोजता, है बंजारा।।  

सोच रहा है अपना नसीबा अपने करम से कहाँ बिगाड़ा।

रफ़ के पन्नों जैसी पुस्तक खुद ही बाँचता, है बंजारा।।

 

किस पर क्रोध करेगा आखिर किसको श्राप भला वो देगा।

अपने जिया के साज की उखड़ी धुन सम्भालता, है बंजारा।।

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 12, 2015 at 9:42pm
21122 12122 22212 2222

एक मु सा फ़िर/ न गर न गर में/ देखो घू मता/ है बन् जा रा

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Comment by मिथिलेश वामनकर on September 11, 2015 at 2:35pm

आदरणीय पंकज जी, जो समस्या आपकी है वही हमारी भी है इस रचना के विषय में. यदि आप इसे ग़ज़ल मानते है तो कृपया बह्र लिख दे, पाठको को समझने में आसानी होगी. 

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 11, 2015 at 8:16am
आभार समर कबीर सर;पर ये ग़ज़ल है या नहीं ये नहीं समझ पा रहा। बह्र के मामले में कमज़ोरी समस्या बानी हुई है
Comment by Samar kabeer on September 10, 2015 at 11:04pm
जनाब पंकज कुमार मिश्रा जी,आदाब,सुन्दर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 10, 2015 at 9:26pm
आदरणीय मिथिलेश सर और आदरणीय सुबाष सर आप दोनों लोगों की प्रतिक्रिया इस रचना पर भी यदि मिलेगी तो इसे भी सुधार सकूँगा; सादर निवेदन
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 10, 2015 at 8:05pm

शिज्जु "शकूर" सर बहुत बहुत आभार; उत्साहवर्धन के लिए शुक्रिया।


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Comment by शिज्जु "शकूर" on September 10, 2015 at 6:21pm
बहुत बढ़िया आदरणीय पंकज जी

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