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ग़ज़ल इस्लाह के लिए (मनोज कुमार अहसास)

2122 2122 2122 212

लड़खड़ाहट चाहता हूँ मैं संभल जाने के बाद
धूप दिल में चुभ रही है दिन निकल जाने के बाद

सबसे पहला शेर था मैं एक ग़ज़ल की सोच का
और खारिज हो गया था लय बदल जाने के बाद

ठोस उस आधार पर लिपटी थी इक चिकनी परत
खुद से शिकवा कर रहे है हम फिसल जाने के बाद

खुश्क आँखों की ज़ुबा को यूँ समझ लो तुम सनम
ख़ाली बरतन जल रहा है सब उबल जाने के बाद

सर छुपाये फिर रहा था रौशनी में दर-ब-दर
चाँद सा खिलने लगा गम शाम ढल जाने के बाद

बेखुदी के दौर में भी कितने तुम महफूज़ थे
नाम रक्खा था छुपाकर सब उगल जाने के बाद

इसलिये ही हमने तेरी याद के आँसु लिखें
रूह इनमे छुप सकेगी जिस्म जल जाने के बाद

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by मनोज अहसास on August 15, 2015 at 2:03pm
आदरणीय समर कबीर साहब
आप मेरे गुरुजनों में है
इस मंच पर आपसे बहुत सीखा है
आदरणीय आपकी इस्लाह मेरे लिए बहुत कीमती है
सदैव आशीर्वाद की छाया में रखिये
बहुत आभार
सादर
Comment by मनोज अहसास on August 15, 2015 at 1:58pm
आदरणीय नरेंद्र सिंह चौहान जी
बहुत आभार
आपका स्नेह सदैव बना रहे
सादर
Comment by kanta roy on August 15, 2015 at 8:07am
लड़खड़ाहट चाहता हूँ मैं संभल जाने के बाद
धूप दिल में चुभ रही है दिन निकल जाने के बाद..... वाह !!! क्या बात कही है आपने कि धुप भी चुभन दे जाती है ।
हर अशआर में कुछ नये से भाव पढने को मिले है जो लाजवाब है । बधाई स्वीकार किजिए आदरणीय मनोज कुमार " एहसास "जी इस बेहतरीन गजल के लिए ।
Comment by Samar kabeer on August 14, 2015 at 11:41pm
जनाब मनोज कुमार अहसास जी,आदाब,वाह वाह वाह,बहुत ही ख़ूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने,बह्र पर आपकी पकड़ मज़बूत होती जा रही है,ये अच्छा संकेत है,मतले में वैसे तो कहने के लिये कुछ नहीं है,लेकिन ऊला मिसरा अगर इस तरह कर लेंगे तो और ख़ूबसूरत हो जाएगा :-

"लड़खड़ाना चाहता हूँ मैं संभल जाने के बाद"

चोथे शैर के ऊला मिसरे में 'ज़ुबा' को "ज़ुबाँ" कर लें इसी तरह आख़री शैर के ऊला मिसरे में 'लिखें'को "लिखे" कर लें ,बाक़ी शुभ शुभ ।
Comment by narendrasinh chauhan on August 14, 2015 at 12:39pm

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