For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

एक ग़ज़ल - सुधिजनो द्वारा परिमार्जन हेतु

खूब सूरत है नज़ारे क्‍या करें

गुरबतों के लोग मारे क्‍या करें

 

सो गए फुटपाथ पर जोखिम मगर

नींद जो उनको पुकारे क्‍या करें

 

साल मे इक माह मिलती छुट्टियां

चॉंद को गर ना निहारे क्‍या करें

 

भेज दी तनख्‍वाह सारी गांव फिर

सूद या कर्जा उतारे क्‍या करें

 

चंद सिक्के रख लिये है आददतन

ये मेरे तनहा सहारे क्‍या करें

डाकिये के हाथ में उम्‍मीद है

देखते है लोग सारे क्‍या करें

 

जब विदा होती है बेटी कोइ भी

ऑंख के टू‍टे किनारे क्‍या करें

( मौलिक एवं अप्रकाशित )

Views: 617

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Ravi Shukla on July 29, 2015 at 5:59pm

आदरणीय मिथिलेश भाई

आपकी  दाद मिलना अच्‍छा संकेत है

शेर कहने के अपने अभ्‍यास के लिये ही चर्चा थी कि सही दिशा मे जा रहे या नहीं

और कुछ नही

आपकी टिप्‍पणी ह्दय से स्‍वीकार है

सदैव स्‍वागत एवं पुन : आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 29, 2015 at 4:56pm

एक निवेदन मेरी टिप्पणी के इस भाग को पूरे मन से पुनः पढ़ेंगे तो बेहतर होगा----->

//आदरणीय रवि जी, बहुत ही शानदार ग़ज़ल हुई है. कल से इस ग़ज़ल को कई बार पढ़ चुका हूँ. हर शेर को गहराई तक मससूस भी कर रहा हूँ. बेजोड़ मतले से ग़ज़ल शुरू होती है और आखिरी शेर तक बांधे रखती है ....शेर दर शेर दाद हाज़िर है //


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 29, 2015 at 4:53pm

कोई शेर ग़ज़ल से खारिज नहीं किया जा सकता .....


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 29, 2015 at 4:53pm

डाकिये के हाथ में उम्‍मीद है

देखते है लोग सारे क्‍या करें..... बढ़िया शेर...........इस शेर के बहाने आपने बिलकुल पुराने दिन याद दिला दिया चिट्ठियों का इंतज़ार हमने भी खूब किया है और गर्मी की छुट्टियाँ भी बिताई है. आपने बढ़िया शेर वाली टिप्पणी पर गौर नहीं किया, लगता है .... ये बहुत अच्छा शेर है कितना कुछ भीतर से गुजर गया इसे पढ़ते हुए. उन्ही सुहावने अतीत के खो जाने और आज की ईमेल  संकृति पर तनिक व्यंग्य करते तुकबंदी कर दी. वो केवल बतकही है वो भी इशारों में. आपका ये शेर बहुत अच्छा है और पूरी सघनता से प्रभावित करता है इसलिए इसे हटाने का तो सोचिये भी मत.... आपके सभी शेर दिल तक पहुंचे है और एक एक पर दिल से दाद निकली है. बाकि बातें मंच पर अभ्यास के क्रम में है .... बहुत उम्दा ग़ज़ल पर पुनः बधाई 

आपने लिखा है //ग़ज़ल इशारे की विधा है इस से आप भी सहमत होंगे//

तो थोड़ा हम पाठको के इशारे भी आप समझिये. हम भी तो प्रतिक्रिया इशारों में भी करते है. भाई मंच की समरसता के लिए जरुरी है. 

सादर..... 

Comment by विनय कुमार on July 29, 2015 at 3:27pm

// जब विदा होती है बेटी कोइ भी
ऑंख के टू‍टे किनारे क्‍या करें // , वाह , वाह , बहुत ही उम्दा ग़ज़ल हुई है आदरणीय | दिली दाद क़ुबूल करें.

Comment by मनोज अहसास on July 29, 2015 at 1:35pm
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल
नमन
सादर
Comment by Ravi Shukla on July 29, 2015 at 1:18pm

आरणीय मिथिलेश भाई

आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा थी आभार

आदतन की टंकण ना के वज्न और कोइ की वैचारिक त्रुटि को बयाज और अभ्‍यास में सही कर लिया है आभार

इस गजल के पीछे कुछ दृश्‍य और बिंब है जिनको बयान करने की कोशिश है ।  ग़ज़ल इशारे की विधा है इस से आप भी सहमत होंगे

हमने अपने बचपन में कुछ परिवारों में देखा था कि चिठ्ठी की प्रतीक्षा होती थी पति परदेश में काम करते थे डाकिये के आते ही रौनक हो जाती थी इसी चित्र में दिहाड़ी मजदूरों के दृश्‍य भी है जो मनी आर्डर करते थे । वो साल में एक माह की छुट्टी लेकर जाते थे बाकी समय यादों के सहारे गुजार देते थे  ऐसे में चिट्टियां, घर भेजी तनख्‍वाह आदि लेकर डाकिया आता था तो वहां का नजारा ऐसा ही कुछ होता था जिसको कहने की कोशिश की है मगर बह्र में सीमित भी होना था । और उस समय ईमेल तो क्‍या घरो में लैंड लाईन फोन भी नहीं था ।

इस शेर को हमारे बचपन मे देखे परिवारों के पति और परदेश में काम कर रहे मजदूरों की नजर से देखें यदि शेर अपने आप नहीं पहुच रहा तो इसे ग़ज़ल से खारिज किया जा सकता है पांच शेर भी पर्याप्‍त है । आखिरी शेर हमें भी पंसद है ।

आपसे विचार साझा करके बहुत अच्‍छा लगा । स्‍नेह बनाये रखें

और हां हमें छुट्टिया तो सही है साल में 30 मिल जाती है पर लैप्‍स हो रही है अब तो ।

पुन: आभार स्‍व्‍ीकार करें ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 29, 2015 at 12:51pm

आदरणीय रवि जी, बहुत ही शानदार ग़ज़ल हुई है. कल से इस ग़ज़ल को कई बार पढ़ चुका हूँ. हर शेर को गहराई तक मससूस भी कर रहा हूँ. बेजोड़ मतले से ग़ज़ल शुरू होती है और आखिरी शेर तक बांधे रखती है ....शेर दर शेर दाद हाज़िर है -

खूब सूरत है नज़ारे क्‍या करें

गुरबतों के लोग मारे क्‍या करें............ बेजोड़ मतला 

 

सो गए फुटपाथ पर जोखिम मगर

नींद जो उनको पुकारे क्‍या करें.......... शानदार शेर ....सीधा दिल को लगा 

 

साल मे इक माह मिलती छुट्टियां

चॉंद को गर ना निहारे क्‍या करें............ चलो आपको एक माह तो मिलती है इधर तो चाँद को निहारने के भी लाले पड़े है. सुन्दर 

यह भी अवश्य है कि अरुज अनुसार ना का वज्न भी 1 ही होता है. इसलिए परंपरा में ग़ज़ल में ना का प्रयोग उचित नहीं मानते 

 

भेज दी तनख्‍वाह सारी गांव फिर

सूद या कर्जा उतारे क्‍या करें............... बढ़िया शेर .... आर्थिक विवशता को बड़े ही सधे ढंग शाब्दिक किया है 

 

चंद सिक्के रख लिये है आददतन

ये मेरे तनहा सहारे क्‍या करें............... बहुत बढ़िया .... आददतन में टंकण त्रुटी हुई है.

डाकिये के हाथ में उम्‍मीद है

देखते है लोग सारे क्‍या करें..... बढ़िया शेर .... बाकी आजकल //हाथ में उम्मीद है ईमेल के/देखते है लोग सारे क्‍या करें//

 

जब विदा होती है बेटी कोइ भी

ऑंख के टू‍टे किनारे क्‍या करें.............. बहुत ही मार्मिक शेर हुआ है..... कोई की वर्तनी टंकण में बदलने की जरुरत नहीं है. पाठक खुद मात्रा गिराकर पढ़ लेगा. यही इस बह्र की शक्ति है एक बार लय बन गई फिर मात्राएँ अपने आप सही गिरने लगती है 

इस प्रस्तुति पर बहुत बहुत बधाई सादर 

 

Comment by Harash Mahajan on July 29, 2015 at 12:36pm

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Chetan Prakash commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post बाल बच्चो को आँगन मिले सोचकर -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"छोटी बह्र  में खूबसूरत ग़ज़ल हुई,  भाई 'मुसाफिर'  ! " दे गए अश्क सीलन…"
16 hours ago
Chetan Prakash commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . नजर
"अच्छा दोहा  सप्तक रचा, आपने, सुशील सरना जी! लेकिन  पहले दोहे का पहला सम चरण संशोधन का…"
16 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Saurabh Pandey's blog post कापुरुष है, जता रही गाली// सौरभ
"आ. भाई सौरभ जी, सादर अभिवादन। सुंदर, सार्थक और वर्मतमान राजनीनीतिक परिप्रेक्ष में समसामयिक रचना हुई…"
21 hours ago
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा सप्तक. . . नजर

दोहा सप्तक. . . . . नजरनजरें मंडी हो गईं, नजर बनी बाजार । नजरों में ही बिक गया, एक जिस्म सौ बार…See More
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

बाल बच्चो को आँगन मिले सोचकर -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

२१२/२१२/२१२/२१२ ****** घाव की बानगी  जब  पुरानी पड़ी याद फिर दुश्मनी की दिलानी पड़ी।१। * झूठ उसका न…See More
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-125 (आत्मसम्मान)
"शुक्रिया आदरणीय। आपने जो टंकित किया है वह है शॉर्ट स्टोरी का दो पृथक शब्दों में हिंदी नाम लघु…"
Sunday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-125 (आत्मसम्मान)
"आदरणीय उसमानी साहब जी, आपकी टिप्पणी से प्रोत्साहन मिला उसके लिए हार्दिक आभार। जो बात आपने कही कि…"
Sunday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-125 (आत्मसम्मान)
"कौन है कसौटी पर? (लघुकथा): विकासशील देश का लोकतंत्र अपने संविधान को छाती से लगाये देश के कौने-कौने…"
Sunday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-125 (आत्मसम्मान)
"सादर नमस्कार। हार्दिक स्वागत आदरणीय दयाराम मेठानी साहिब।  आज की महत्वपूर्ण विषय पर गोष्ठी का…"
Sunday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post शेष रखने कुटी हम तुले रात भर -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"आ. भाई गिरिराज जी , सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post शेष रखने कुटी हम तुले रात भर -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"आ.भाई आजी तमाम जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और उत्साहवर्धन के लिए आभार।"
Saturday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-125 (आत्मसम्मान)
"विषय - आत्म सम्मान शीर्षक - गहरी चोट नीरज एक 14 वर्षीय बालक था। वह शहर के विख्यात वकील धर्म नारायण…"
Saturday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service