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देखो कैसे

एक धुरी पर

नाच रहा पंखा

 

दिनोरात

चलता रहता है

नींद चैन त्यागे

फिर भी अब तक

नहीं बढ़ सका

एक इंच आगे

 

फेंक रहा है

फर फर फर फर

छत की गर्म हवा

 

इस भीषण

गर्मी में करता

है केवल बातें

दिन तो छोड़ो

मुश्किल से अब

कटती हैं रातें

 

घर से बाहर

लू चलती है

जाएँ भला कहाँ

 

लगा घूमने का

बचपन से ही

इसको चस्का

कोई आकर

चुपके से दे

बटन दबा इसका

 

व्यर्थ हो रही

बिजली की ये

है अंतिम इच्छा

-------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 6, 2015 at 6:08pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय महर्षि जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 6, 2015 at 6:06pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीया कान्ता जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 6, 2015 at 6:04pm

बहुत बहुत शुक्रिया श्री सुनील जी

Comment by maharshi tripathi on July 5, 2015 at 10:06pm

पंखे को केन्द्रित कर ,,,बिजली बचाने  के सन्देश देती ,,आपकी कविता पर आपको बधाई |

Comment by kanta roy on July 4, 2015 at 11:33pm
पंखे का चलना और गर्मी का बढना और ऊपर से आपका शानदार कविता .... क्या बात है । बहुत खूब आदरणीय धर्मेन्द्र जी
Comment by shree suneel on July 4, 2015 at 5:12pm
सुन्दर... सरल ऐसा जैसे कोई बाल-गीत... बधाई आपको इस प्रस्तुति पर आदरणीय.

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