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रफ्ता रफ्ता जिंदगी की आरजू जाती रही ।
दरमियाँ तन्हाइयों के मौत कुछ गाती रही ।।

मत कहो वो बेवफा थी आसनाई में मिरे।
वो खयालो में मेरे यूँ रात भर आती रही।।


बारिशें मुमकिन कहाँ जो भीग जाते हम कभी ।
बनके सावन की घटा ता उम्र वो छाती रही ।।


रोज़ रुसवाई की चर्चा फ़िक्र का अपना शबाब।
मैं जलूँगी ख़ाक होने तक कसम खाती रही ।।


फिर समंदर ने गुजारिश की है लहरो से यहां।
साहिलों की तश्नगी पर जुल्म क्यों ढाती रही ।।


माँ यतीमों की तरह मजबूर हो करती बसर।
जो दुआएं मांग कर मेरे लिए लाती रही ।।

जिसकी आँखों में शरारत वो थी महबूबा मेरी ।
पर जो नज़र खामोश थी बीबी वही भाती रही ।।

--नवीन मणि त्रिपाठी

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 25, 2015 at 4:11pm

बधाई हो नवीन भाई

Comment by Naveen Mani Tripathi on May 25, 2015 at 3:47pm
Janab kabir sahab apki hausala afjai ke liye tahe dil se shukriya . Meree koshish hogi ye sil sila yun hi kaayam rahe .
Comment by Naveen Mani Tripathi on May 25, 2015 at 3:44pm
Manoj kumar ahsas sahab bahut bahut
Shukriya janb .....
Comment by Samar kabeer on May 25, 2015 at 3:16pm
जनाब नवीन जी,आदाब,बहुत ही ख़ूबसूरत और अच्छी ग़ज़ल से नवाज़ा है आपने मंच को,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।

"'नवीन' आप अच्छी ग़ज़ल कह रहे हैं
मैं आगे भी ये सिलसिला चाहता हूँ"
Comment by मनोज अहसास on May 25, 2015 at 11:08am
बहुत खूब
बेहतरीन
सादर

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