22—22—22—22—22—2 |
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पलकों से हर लफ्ज़ सजाना पड़ता है |
आँसू पीकर गीत बनाना पड़ता है |
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मंहगाई में झूठा रौब जताने को |
चिल्लर को तनख्वाह बताना पड़ता है |
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नीला-नीला पानी कैसे लाल हुआ |
बच्चों से हर राज़ छुपाना पड़ता है |
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दुनिया से जब यार मुकाबिल होता हूँ, |
हर तेवर, हर रंग दिखाना पड़ता है |
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पत्थर जैसा जान हमे वो पेश आये |
जिन्दा है अहसास कराना पड़ता है |
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जैसा दिखता है, वैसा होता है कब |
दोनों में बस फर्क लगाना पड़ता है |
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रूह गुलामी से देखो कितनी लिपटी |
अपना खुद को शोर सुनाना पड़ता है |
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आला अफसर की फितरत टॉमी जैसी |
हर दिन अपना कौर खिलाना पड़ता है |
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उनके दुःख में झूठें आँसू लाने को |
झूठा हर अहसास जगाना पड़ता है |
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दुनिया का सच जाहिर करने ग़ालिब को |
खुद को ही बदनाम जताना पड़ता है |
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Comment
आदरणीय मिथिलेश भाई जी अच्छी रचना लिए हार्दिक बधाई
आदरनीय मिथिलेश भाई , गज़ल अच्छी हो सकती थी , पर जल्दबाजी साफ झलक रही है , आदरणीय समर भाई जी ने वे बातें कह दीं है जो मै कहना चाहता था । इसके सिवाय एक दो बातें और कहना चाहता हूँ --
पलकों से हर लफ्ज़ सजाना पड़ता है
आँसू से फिर गीत बनाना पड़ता है -- आँसू पी के , कहें तो ?
घर में अपना झूठा रौब जताने को
चिल्लर को तनख्वाह बताना पड़ता है --- कम से कम मै तो बात समझ नहीं पाया , हो सकता है मिसरों मे राब्ता हो ,
गीदड़ हूँ , पर शेर बताना पड़ता पड़ता है , इस भाव की ज़रूरत है शायद ।
बाकी अशआर में भी तार्किकता एक बार देख जाइयेगा ॥
"क्या बात है ..... बहुत खूब ... बधाई आप को " |
आला अफसर की फितरत टॉमी जैसी
आधी रोटी रोज़ खिलाना पड़ता है
क्या बात है! आ० मिथिलेश सर!
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