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उमर तनहा गुजर जाये सहारा ढूढते जग में ,

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२ - हजज मुसम्मन सालिम
चमन में फूल खिलते हैं खुशी का राज होता है |
ख़ुशी में झूमते  भौंरे  मजे  से  काज होता है |
खिले जब फूल डाली में नजारा ही बदल जाये ,
हजारों लोग  आते हैं  अनोखा  साज होता है |
उदासी का सबब होता उजाड़े जब चमन कोई  ,
विराने में कहाँ कोई खुशी का  काज  होता है |
मजा वैसा  नहीं आता  अकेले  राह चलने में ,
अगर  हो साथ में कोई मजे से काज होता है |
अगर कुछ  हो  परेशानी  बताते हैं अकेले  में ,
अगर साथी सफर में हो अलग ही नाज़ होता है|
उमर तनहा गुजर जाये   सहारा  ढूढते जग में ,
उजाड़ो ना चमन  वर्मा  जहाँ   बेताज  होता है |
श्याम नारायण वर्मा 
(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Shyam Narain Verma on March 27, 2015 at 9:49am

आदरणीय डा. आशुतोष मिश्र जी रचना भाव पसंद करने के लिए हार्दिक आभार।
आदरणीय श्री गिरिराज जी और श्री समर कबीर जी रचना भाव पसंद करने के लिए और अमूल्य सलाह के लिए हार्दिक आभार।
सादर ............

Comment by Dr Ashutosh Mishra on March 25, 2015 at 3:51pm

आदरणीय श्याम जी ..आपकी इस सुंदर ग़ज़ल पर मेरी हादिक बधाई सादर 

Comment by Samar kabeer on March 25, 2015 at 10:38am
जनाब गिरिराज भंडारी जी,आदाब,हम ग़ज़ल कहेंगे तो ग़ज़ल के नियमों का पालन करना आवश्यक है,क़ाफ़िये का इस्तेमाल हम इच्छानुसार नहीं कर सकते,और जनाब यह हिंदी नहीं देवनागिरी है |

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Comment by गिरिराज भंडारी on March 24, 2015 at 11:36pm

आदरणीय श्याम भाई , अच्छी ग़ज़ल हुई है , गज़ल के लिये हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें । मै आदरणीय मिथिलेश भाई जी बात से सहमत हूँ , कहीं कहीं बात साफ नहीं कह पाये हैं आप । लेकिन आदरणीय समर भाई जी की बात से  असहमत हूँ । हिन्दी ग़ज़ल में नुक्तों के अनुसार काफिया बन्दी संभव नहीं है , इस नियम को उर्दू लिपि मे लिखने वालों को ज़रूर निभाना चाहिये , ऐसा मेरा मत है । आगे गुणिजनों के ऊपर है , जैसी सलाह दें ।

Comment by Shyam Narain Verma on March 24, 2015 at 5:38pm

आदरणीय , रचना भाव पसंद करने के लिए और  अमूल्य सलाह के लिए हार्दिक आभार। 

Comment by Samar kabeer on March 24, 2015 at 4:43pm
जनाब श्याम नारायण वर्मा जी आदाब,सुन्दर ग़ज़ल के लिये बधाई स्वीकार करें,आपने ग़ज़ल में बह्र से तो इन्साफ़ किया है लेकिन क़ाफ़िये से कई अशआर में इन्साफ़ नहीं हो सका,आपकी ग़ज़ल के क़ाफ़िये "काज","राज","आज" हैं,इसमें आपने "साज़","नाज़" क़ाफ़िये भी इस्तेमाल किये हैं जो इस ग़ज़ल के क़ाफ़िये ही नहीं हैं,कृपया अन्यथा न लें |
Comment by Shyam Narain Verma on March 24, 2015 at 9:57am

आदरणीय डा. विजय शंकर जी और श्री सोमेश कुमार जी रचना भाव पसंद करने के लिए आपका हार्दिक आभार।
सादर

Comment by somesh kumar on March 23, 2015 at 8:36pm

मजा वैसा  नहीं आता  अकेले  राह चलने में

सही कहा जीवन का कोई भी पथ हो ,बिना संग-साथ के सफ़र नीरस और थकाऊ लगता है |अब इस साहित्यिक सफ़र में ही इतने मित्रों के सान्निध्य में सबके सृजन में निखर आ रहा है |बधाई इस प्रस्तुति पर 

Comment by Dr. Vijai Shanker on March 23, 2015 at 6:54pm
लयबद्ध , सुन्दर , बधाई, आदरणीय श्याम नारायण जी, सादर।
Comment by Shyam Narain Verma on March 23, 2015 at 5:54pm

आदरणीय श्री गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी और श्री मिथिलेश जी रचना भाव पसंद करने के लिए और अमूल्य सलाह के लिए हार्दिक आभार।
सादर

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