सुख-दुःख तो आते जाते हैं...................................
सुख-दुःख तो आते जाते हैं, राही मत घबरा जाना रे !
जीवन की गहरी नदियाँ में, हँसकर पतवार चलाना रे !
हमने कुछ देखी रीत यहाँ,..................................
हमने कुछ देखी रीत यहाँ, श्रम से ही सब कुछ मिलता है !
ईमान –धरम के काँटों में, तब फूल मुकद्दर खिलता है !
दौलत तो आनी जानी है.................................
दौलत तो आनी जानी है, ना मन इसमें उलझाना रे !
जीवन की गहरी नदियाँ में, हँसकर पतवार चलाना रे !
ये पाप - पुण्य है खेल यहाँ,..................................
ये पाप - पुण्य है खेल यहाँ, जो करता है सो भरता है !
जो सत की राह चले वो तो, इस भवसागर से तरता है !
सारे बंधन हैं स्वप्न यहाँ..................................
सारे बंधन हैं स्वप्न यहाँ, मत जीवन व्यर्थ गवाँना रे !
जीवन की गहरी नदियाँ में, हँसकर पतवार चलाना रे !
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित”
Comment
आदरणीय गुमनाम पिथौरागढ़ी जी बहुत बहुत आभार !
बहुत सुंदर रचना. बधाई आदरणीय हरिप्रकाश जी
सारे बंधन हैं स्वप्न यहाँ, मत जीवन व्यर्थ गवाँना रे !
जीवन की गहरी नदियाँ में, हँसकर पतवार चलाना रे !----------------सुन्दर रचना आदरणीय i
सुंदर भाव से संजोयी रचना पर बधाई स्वीकारें |
आदरणीय डॉ विजय शंकर सर, आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया ह्रदय को छू गई, आभार ! सादर
आदरणीय मिथिलेश जी , आपकी बातों से दूगना आनंद मुझे भी आ गया और आपने जो त्रुटियाँ इंगित की हैं अभी ठीक करता हूँ , आपका आभार ,आपका धन्यवाद !
दौलत तो आनी जानी है.................................
दौलत तो आनी जानी है, नहीं मन इसमें उलझाना रे !
जीवन की गहरी नदियाँ में, हँसकर पतवार चलाना रे !
वाह खूब रचना है वाह
आदरणीय हरिप्रकाश दुबे जी वाह क्या कमाल का गीत लिखा है. झूम गया हूँ आपके इस गीत को पढ़कर.... लय तो ऐसी कमाल है कि बस दिल से वाह वाह निकल गई. पूरा गीत 16-16 की मात्रा में बहुत सुन्दर सजा हुआ है, जहाँ मात्रा अधिक कम हुई उसे केवल एक शब्द अधिक या कम करके अथवा मात्रा अनुसार शब्दों का क्रम बदला है. इस गीत को मैंने इस तरह पढ़ा और गुनगुनाया है-
सुख-दुःख तो आते जाते हैं, राही मत घबरा जाना रे !
जीवन की गहरी नदियाँ में, हँसकर पतवार चलाना रे !
हमने कुछ देखी रीत यहाँ,
श्रम से ही सब कुछ मिलता है !
ईमान –धरम के काँटों में,
तब फूल मुकद्दर खिलता है !
दौलत तो आनी जानी है, ना मन इसमें उलझाना रे !
ये पाप - पुण्य है खेल यहाँ,
जो करता है सो भरता है !
जो सत की राह चले वो तो,
इस भवसागर से तरता है !
सारे बंधन हैं स्वप्न यहाँ, मत जीवन व्यर्थ गवाँना रे !
आपके इस बेहतरीन गीत पर दिल से ढेर सारी बधाई स्वीकार करें.... ये गीत पढ़कर आज का दिन सुखद और सफल कर दिया. सादर
आदरणीय सुशील सरना सर ह्रदय से आभार आपका , आपके मार्गदर्शन, स्नेह की सदैव आकांक्षा है, सादर !
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online