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बाउजी, आखिरकार वो “रोडियो वाली फिल्म” ने झंडे गाड़ दिए ,सनसनी पैदा कर दी है, और साहब सुना है की हीरो ने और जिसने फिल्म बनाई है उसने  “करोड़ों रूपये अन्दर कर लिए हैं “ !

“हाँ बात तो सही कह रहा है तू .........तूने देखी है वो फिल्म ?”

नहीं साहब पैसे नहीं जुटा पाया, मैं लोगों के जूते सिलता ,पॉलिश करते हुए यहीं लोगों से उसकी कहानी सुनता रहता हूँ !!

 

© हरि प्रकाश दुबे

"मौलिक व अप्रकाशित"

 

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Comment by Hari Prakash Dubey on January 14, 2015 at 8:22pm

इस लघुकथा  पर आपके समर्थन  के लिए हार्दिक आभार आदरणीय  श्याम नारायण वर्मा  जी !.

Comment by Hari Prakash Dubey on January 14, 2015 at 8:13pm

हार्दिक आभार आदरणीया आशा पाण्डेय ओझा जी ! सादर 

Comment by Hari Prakash Dubey on January 14, 2015 at 7:58pm

"लघुकथा की मुक्तकंठ से प्रशंसा हेतु हार्दिक आभार आदरणीय  भाई मिथिलेश वामनकर जी।"

Comment by asha pandey ojha on January 14, 2015 at 4:04pm

अच्छी लघुकथा आदरणीय 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 14, 2015 at 12:54pm

आदरणीय बहुत सुन्दर , मार्मिक लघु कथा के लिये बधाई ।

Comment by khursheed khairadi on January 14, 2015 at 12:36pm

आदरणीय हरी प्रकाश जी, क्या ख़ूब ,मार्मिक , सीधे अंतर्मन पर चोट |सादर अभिनन्दन |

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 14, 2015 at 11:46am

हार्दिक बधाई ... आ० भाई हरी प्रकाश जी  l

Comment by Shyam Narain Verma on January 14, 2015 at 10:59am

बहुत सुंदर लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 14, 2015 at 10:52am
अच्छी लघुकथा। तीखा व्यंग्य। बधाई आदरणीय हरिप्रकाश दुबे जी।

कृपया ध्यान दे...

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