जब भी उमड़ घुमड़ कर काले बादल नभ में आते हैं,
पुरवाई के झोंके आ आकर चुप-चुप दस्तक दे जातें हैं !
मेरे कानों में आ चुपके से तुम कुछ कह जाती हो,
मुझको लगता फिर बार-बार तुम अपने गावँ बुलाती हो !!
कहती हो आकर देखो फिर ताल-तललिया भर आई,
आकर देखो वन उपवन में फिर से हरियाली छाई !
शुष्क लता वल्लारियाँ भी अब दुल्हन बन इठलाती हैं,
कुञ्ज बनाकर आँख मिचौली खेल –खेल मुस्कातीं हैं !!
बुढा बरगद फिर छैला बन पुरवाई संग झूम रहा ,
कालू भैंसा नागा बन फिर गली-गली में घूम रहा !
फिर से नाव नदी में लेकर माँझी गाता है छइया ,
हरदम हांक लगता रहता आओ पार चलें भईया !!
फिर से झूला पड़ा बाग़ में लेकर अपनी हमजोली ,
रात–रात भर कजरी गाती फिर से सखियों की टोली !
ढलती शाम जुगनुओं का मेला फिर से लग जाता है,
बँसवारी से कभी-कभी चंदा भी छुपकर आ जाता है !!
खेतों में हरियाली की चादर फिर से लहराई है ,
आकर देखो इन ज्वार बाजरों पर छाई तरुणाई है !
जब भी समय सुहाना आता तुमको भूल न पाती हूँ ,
इसीलिए जब-तब चुपके से तुमको अपने गावँ बुलाती हूँ !!
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
जब भी उमड़ घुमड़ कर काले बादल नभ में आते हैं,...32 मात्रा
पुरवाई के झोंके आ आकर चुप-चुप दस्तक दे जातें हैं !.....36 मात्रा
मेरे कानों में आ चुपके से तुम कुछ कह जाती हो,......30 मात्रा
मुझको लगता फिर बार-बार तुम अपने गावँ बुलाती हो !!...34 मात्रा
जब भी उमड़ घुमड़ कर काले, / बादल नभ में आते हैं,...16 -14 मात्रा
पुरवाई के झोंके दस्तक / चुपके से दे जातें हैं !...........16 -14 मात्रा
मेरे कानों में आ चुपके / से तुम कुछ कह जाती हो,......16 -14 मात्रा
मुझको लगता बार-बार तुम / अपने गावँ बुलाती हो !!...16 -14 मात्रा
आदरणीय हरिप्रकाश दुबे जी बेहतरीन प्रस्तुति है....गांव के उन समस्त छवियों को समाहित किये हुए जो हमारी यादों में बसे है. बहुत सुन्दर गीत है बस एक लय में सज जाए तो मज़ा आ जाए ... इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई
आदरणीय हरी प्रकाश जी ..सुन्दर भाव ..से सुसज्जित बेहतरीन गीत .बस पुरवाई के झोंके आ आकर चुप-चुप दस्तक दे जातें हैं ! में थोड़ी गेयता बाधित लगी ....हो सकता है मुझे ऐसा लगा हो एक बार पुनः इस गीत के लिए हार्दिक बधाई के साथ सादर
हरि प्रकाश जी
अच्छा भाव भरा गीत है i सुन्दर i
इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई |
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