पाँव में खुद के बिवाई हो गयी.
आदमी तेरी दुहाई हो गयी.
वायु पानी भी नहीं हैं शुद्ध अब,
सांस लेने में बुराई हो गयी.
बारिशों का दौर सूखा जा रहा.
मौसमों की लो रुषायी हो गयी.
आपदाएं रोज़ होतीं हर कहीं,
रुष्ट अब जैसे खुदाई हो गयी.
काट डाले पेड़ सब मासूम से,
जंगलों की तो सफाई हो गयी.
काटती है पैर खुद अपने भला,
देखिये आरी कसाई हो गयी.
पेड़ दिखते थे जहाँ पर गाँव में,
आज चिमनी लो हवाई हो गयी.
एक रोपे पौध दूजा काटता,
जिन्दगी जैसे परायी हो गयी.
.
**हरिवल्लभ शर्मा दि. 29.09.2014
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
waah sir ji khoob gazal hui hai badhai ......
वायु पानी भी नहीं हैं शुद्ध अब,
सांस लेने में बुराई हो गयी.
आपदाएं रोज़ होतीं हर कहीं,
रुष्ट अब जैसे खुदाई हो गयी.
सुन्दर ग़ज़ल बनी , आदरणीय हरिबल्लभ शर्मा जी , बधाई।
आदरणीय Shyam Narain Verma जी आपका हार्दिक आभार..आपने प्रोत्साहित किया.
इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई आपको |
बहुत आभार आदरणीया MAHIMA SHREE जी ग़ज़ल पर आपका अनुग्रह मिला .
एक रोपे पौध दूजा काटता,
जिन्दगी जैसे परायी हो गयी. ..बेहद उम्दा हार्दिक बधाई आपको आ. वल्लभ जी
.
आदरणीय Pawan Kumar जी आपका हार्दिक आभार आपकी उत्साहित करती प्रतिक्रिया का.बहुत धन्यवाद.
एक रोपे पौध दूजा काटता,
जिन्दगी जैसे परायी हो गयी.
सुन्दर प्रस्तुति, वर्तमान स्थिति का गम्भीरता से वर्णन किया है आपने
आदरणीय, सादर बधाई!
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