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चलो मयकदे मेँ जमाने मेँ क्या हैँ ।
अगर लुत्फ है तो उठाने मेँ क्या है ।

न पाया जमाने मेँ कुछ भी रहकर ,
अब मयकदा आजमाने मेँ क्या है ।

भर जायेगी जब पैमानोँ मेँ मय ,
फिर उसको पीने पिलाने मेँ क्या है ।

खुदा का तसव्वुर जब हर जगह है ,
फिर सर यहाँ भी झुकाने मेँ क्या है ।

जब राज दिल के सब खुल गये होँ ,
परदा नजर का गिराने मे क्या है ।

न इन्सान समझे जब दिल की कीमत ,
दिल मयकशी से लगाने मेँ क्या है ।

सिवा तेरे तू ही बता मेरे दिलबर ,
इस जिन्दगी के फसाने मेँ क्या है ।

अगर चाहिये जिन्दगी को बहाना ,
कि इस खूबसूरत बहाने मेँ क्या है ।

मौलिक व अप्रकाशित
नीरज मिश्रा

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Comment

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Comment by Neeraj Nishchal on September 17, 2014 at 12:20pm

मैं खुद से कभी ये सिफारिश करूंगा |

तुम्हें भूलने की गुजारिश करूंगा | 

आदरणीय भंडारी जी एक ग़ज़लकार का ये मतला जब मैंने देखा  तो पहली पंक्ति मे शुरुवात के शब्द मै को पर मैंने सवाल किया तो उन्होंने कहा मै 1 भर का वजन दो और ग़ज़ल  इसकी इजाजत देता है तो आप अब मेरी शंका को दूर करें | 

Comment by Neeraj Nishchal on September 17, 2014 at 12:12pm

आदरणीय नरेन्द्र जी आपका बहुत बहुत आभार

Comment by harivallabh sharma on September 17, 2014 at 11:26am

भाव सुन्दर हैं..तक्तीअ पर मिसरे और कसे होते तो आनद आ जाता..गुनिजन की राय पर अमल करें बहुत सुन्दर ग़ज़ल होगी.

Comment by khursheed khairadi on September 17, 2014 at 10:17am

आदरणीय नीरज भाई अच्छे भाव हैं ,अभिनन्दन |आदरणीय गिरिराज जी की इस्लाह अनुसार यदि आप मिसरों को यगण की चार आवृतियों या फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन पर बांधे तो लय का चमत्कार आप स्वयं अनुभव करेंगे |सादर 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 15, 2014 at 6:57pm

नीरज भाई

तक्तीअ तो गुनीजन जाने i पर मुझे आपकी गजल  के भाव बहुत अच्छे लगे .

Comment by gumnaam pithoragarhi on September 15, 2014 at 6:33pm

न पाया जमाने मेँ कुछ भी रहकर ,
अब मयकदा आजमाने मेँ क्या है ।

waah achchha hai......


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 15, 2014 at 4:42pm

आदरणीय नीरज भाई , बहुत खूब सूरत ग़ज़ल हुई है , आपको बधाइयाँ |

कुछ मिसरे बहर से भटके हुए लगा रहे हैं , अगर आपने ग़ज़ल --१२२   १२२   १२२  १२२ में कही है तो , एक बार सभी मिसरों की तक्तीअ करा के देख लीजिये |

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