२२ २२ २२ २२ २
किसके गम का ये मारा निकला
ये सागर ज्यादा खारा निकला
दिन रात भटकता फिरता है क्यों
सूरज भी तो बन्जारा निकला
सारे जग से कहा फकीरों ने
सुख दुःख में भाईचारा निकला
हथियारों ने भी कहा गरजकर
इन्सा खुद से ही हारा निकला
चाँद नगर बैठी बुढ़िया का तो
साथी कोई न सहारा निकला
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
:-)))))
नमस्कार सर आपका धन्यवाद कि आपने मेरी रचना के लिए समय निकाला ,,,,,,,,,,,, वाकई मैं सोच नहीं पाया कि थोड़े बदलाव से ग़ज़ल की खूबसूरती बढ़ जाएगी। फिर से आपका सभी धन्यवाद,,,,,,,,,,,,,,,,
आदरणीय गुमनाम भाई , ग़ज़ल बहुत सुन्दर कही है , मैं भी आदरणीय सौरभ भाई जी से सहमत हूँ , आ. नीलेश भाई ने आपकी ग़ज़ल को और सँवार दिया है , सधन्यवाद उस सुधार को अपना लीजिये | आपको ग़ज़ल के लिए बहुत बधाई ||
जिस गंभीरता और आत्मीयता से आदरणीय नीलेशजी ने आदरणीय लक्ष्मण जी की इस ग़ज़ल को सँवारा है यह इस मंच की परिपाटी को सुदढ़ करता हुआ प्रयास है. यह अवश्य है कि इस बह्र में प्रवाह की अहमीयत सर्वाधिक है.
प्रस्तुति हेतु हार्दिक शुभकामनाएँ आदरणीय लक्ष्मण जी.
बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है ..बधाई आपको
लेकिन मुझे लगता है कि नौ कि जगह आठ के सेट में लय अधिक निखरती ..
माफ़ी चाहूँगा ..बिना इजाज़त छेड़छाड़ कर रहा हूँ ..
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किसके गम का मारा निकला
सागर ज्यादा खारा निकला
दिन औ रात भटकता है ये
सूरज तो बन्जारा निकला
कहा फकीरों ने ये जग से
सुख दुःख भाईचारा निकला
हथियारों ने कहा गरजकर
इन्सा खुद से हारा निकला
चाँद नगर बैठी बुढ़िया का
कोई न साथी सहारा निकला
.
अंतिम शेर में ई और थी को गिरा कर पढ़ा है..
आशा है आप मेरी इस धृष्टता को क्षमा करेंगे
सादर
आदरणीय गुमनाम जी इस बहर से ज्यादा वाकिफ नहीं हूँ ग़ज़ल पसंद आयी ..ढेरो बधाई के साथ ..सदर
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