लोला
तीन साल बाद अपने पैतृक आवास की ओर जाते हुए बड़ा अन्यमनस्क था मै I इससे पहले आख़िरी बार पिताजी की बीमारी का समाचार पाकर उनकी चिकित्सा कराने हेतु यहाँ आया था I हालाँकि हमारी तमाम कोशिशे कामयाब नहीं हुयी थी और हम उन्हें बचा नहीं सके थे I मेरी भतीजी उस समय तीन या चार वर्ष की रही होगी I पिता जी की दवा और परिचर्या के बाद जो भी थोडा समय मिलता, वह मै अपनी भतीजी के साथ गुजारता I उसे बाँहों में लेकर जोर से उछालता I वह खिलखिलाकर हंसती थी I मै प्यार से उसे ‘लोला’ कहता था I लोला यानि कि चंचला I उसे इस नाम से केवल मै पुकारता था I घर के अन्य लोगो को शायद यह नाम पसंद नही था I पिता जी की परिचर्या का क्रम लगभग चालीस दिन चला और इतना ही लोला से मेरा क्रीड़ा-व्यवहार भी I लोला मुझसे इस सीमा तक हिल चुकी थी कि उसे मेरे बगैर चैन ही नहीं आता था I वह जब भी मुझे देखती बाहे फैलाकर दौड़ पड़ती I मै भी उसे भुजाओ में उठाकर आत्ममुग्ध हो जाता था I
पिता जी का निधन होते ही परिस्थितियां एकाएक बदली I भाई साहेब ने बंटवारे का बिगुल बजाया I खेत-पात अलग हुए I घर के भी दो हिस्से हुए I आँगन और कुछ भाग बांटे नहीं जा सके, उन्हें शरीकाना रखा गया I इन सबसे निपटकर मै खिन्नमना अपने हिस्से में ताला लगाकर परिवार सहित अपनी नौकरी पर शहर लौट गया I तब से लगभग दो साल बाद मै घर वापस आने की मनःस्थिति में आ सका था, वह भी खेती के किसी नए विवाद के कारण I
घर पहुँचने पर मुझे लगा की घर का वातावरण अब मेरे लिए वैसा नहीं था जैसा पिता जी के समय में हुआ करता था I यही सोचता हुआ मै आगे बढ़ा I छोटा भाई होने के कारण मुझे कुछ संकोच तो था नहीं I मै बेसाख्ता दहलीज पार कर आंगन में आ गया I मैंने देखा कि लाल रंग के फ्राक में लगभग पांच या छः वर्ष की एक लडकी पड़ोस के किसी समवय लड़के के साथ एक निश्चित गोल दायरे में आगे-पीछे दौड़ रही थी I मुझे लोला को पहचानने में जरा भी देर नहीं लगी I मैंने तत्क्षण पकड़कर उसे हवा में उछाल दिया I लोला ने भय और विस्मय से इस आकस्मिक व्यवधान को देखा I हवा से जब वह पुनः मेरी बाहो में आयी तो उसने अपने को छुड़ाने का यत्न भी किया I तभी अचानक उसकी निगाह मेरे चेहरे पर आकर टिकी और मानो कुछ देर के लिए स्थिर हो गयी I उसका प्रयास एकायक ढीला पड़ गया I फिर उसके कांपते मुख से एक ही शब्द निकला- ‘लोला’
मुझे लगा यह आवाज दूर कही किसी अन्तरिक्ष से आई हो I पल भर के लिए मै अपनी सुध-बुध भूल बैठा I लोला अचानक मेरे कंधे से चिपक कर हिलक-हिलक कर रोने लगी I मै कुछ सोच पाता इससे पहले अचानक बाहर से किसी के आने की आहट सुनायी दी I यह भाभी थी जो शायद किसी काम से बाहर गयी हुयी थी I उन्हें लोला से मेरी यह अंतरंगता अच्छी नहीं लगी I बंटवारे के बाद दिल जो बंट जाते हैं I मैंने आगे बढ़कर भाभी के पैर छुए i मुझे यह याद नहीं की उनकी क्या प्रतिक्रिया थी I पर मेरे ह्रदय में एक अव्यक्त हाहाकार अंगडाइयां ले रहा था I उसे भरसक दबाते हुए मैंने स्वय से कहा-‘’ जमाना कितना ही खुदगर्ज हो जाये बेटी पर तू मेरे लिए सदा ‘लोला’ ही रहेगी i ‘’
(मौलिक व् अप्रकाशित )
Comment
जी आदरणीय समझ गई ,पुनः बधाई देती हूँ इस सुन्दर कहानी पर |
आहूजा जी
आपने सही कहा i आपका शत -शत आभार i
आदरणीय सौरभजी
आपकी यह पंक्ति ह्रदय को छू गयी -
ये ’लोलाएँ’ हमारे जीवन में कई रूपों-संज्ञाओं में आया करती हैं. बाद में, ये भी बड़ी हो जाती हैं.
ऐसी मार्मिक टीप आप ही कर सकते हैं श्रीमन i सादर आभार i
सविता जी
आपका बहुत-बहुत आभार i
महनीया
संस्मरण भोगा हुआ सत्य होता है i पर यह कहानी पूर्णतः काल्पनिक है i इसलिए इसे संस्मरण मैने नहीं माना i यह लिखी प्रथम पुरुष में ही गयी है i पर यह प्रचलन में है i आपका आभार माननीया i सादर i
माननीय गोपालनारायण जी, कदाचित आज यह घर-घर कि कहानी हो गई है ! बटवारे के बाद संपत्ति ही नहीं वरन दिल भी बंट जाते हैं ! एक भाव-पूर्ण कहानी ! साधुवाद ........
इस छोटी कहानी को पढ़ कर देर तक सोचता रहा... . ये जीवन है, इस जीवन का यही है रंग-रूप.. !
ये ’लोलाएँ’ हमारे जीवन में कई रूपों-संज्ञाओं में आया करती हैं. बाद में, ये भी बड़ी हो जाती हैं.
हृदय से बधाई स्वीकार करें, आदरणीय गोपालनारायनजी.
सादर
बहुत भावुक कहानी सच है बंटवारे के बाद दिल जो बंट जाते हैं
मुझे ये कहानी न लगकर एक संस्मरण लगा खैर जो भी है पढ़ते- पढ़ते भावुक हो गई सच में बच्चे स्वार्थ ,भेदभाव ,स्वार्थपरता इन सब कडवाहट से बहुत दूर होते हैं बहुत मासूम होते हैं स्नेह के स्पर्श को पहचानते हैं कहानी का अंतिम भाग जब लोला ने पहचान लिया ,ह्रदय को छू गया बहुत-बहुत बधाई आपको इस को साझा करने के लिए आ० डॉ गोपाल नारायण जी
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