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दृष्टि   मिलन  के  प्रथम पर्व में

दृप्त    वासना   नभ   छू   लेती

पागलमन   को   बहलाता   सा

जग  कहता   नैसर्गिक   सुख है I

 

क्या  निसर्ग  सम्भूत  विश्व  में

क्या स्वाभाविक और सरल क्या

वाग्जाल   के    छिन्न   आवरण

में     मनुष्य   की   दुर्बलता    है I

 

बुद्धि   दया   की   भीख मांगती

ह्रदय    उपेक्षा    से    हंस    देता

मानव !    तेरी      दुर्बलता    का

इस    जग   में   उपचार   नहीं  है I

 

संस्कार    है    गत    जन्मो   का

या   फिर     है   अँधा    आकर्षण

छल   भी   नहीं   न   है  सम्मोहन

मनुज    हृदय   का    पाप  प्रेम   है I

 

 

[मौलिक व् अप्रकाशित ]

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 3, 2014 at 9:25pm

बहुत ही सुंदर रचना, बधाई स्वीकारें आदरणीय डा.गोपाल जी

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on August 3, 2014 at 9:24pm

संस्कार    है    गत    जन्मो   का

या   फिर     है   अँधा    आकर्षण

छल   भी   नहीं   न   है  सम्मोहन

मनुज    हृदय   का    पाप  प्रेम   है I

अनेक लहजों में परिभाषित प्रेम - अनूठी रचना!

Comment by ram shiromani pathak on August 3, 2014 at 8:21pm

सुन्दर प्रस्तुति  आदरणीय।हार्दिक बधाई आपको। ।   सादर 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 2, 2014 at 7:59pm

महनीया

आभार प्रकट करता हूँ I

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 2, 2014 at 7:56pm

शिज्जू भाई

आपकी साहित्यिक समझ उच्चकोटि की है i आपसे संस्तुति मिलना ह्रदय को सुकून देता है I

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 2, 2014 at 7:54pm

डा0  विजय जी

आपको प्रणाम  एवं आपका आभार i  

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 2, 2014 at 7:52pm

आदरणीय सन्तिलाल जी

आपकी टीप ही इस सत्य का प्रमाण है की आप कविता के मर्म तक गए हैं i आपका शत-शत आभार i

Comment by Meena Pathak on August 2, 2014 at 3:18pm

अनुपम .......सादर बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on August 2, 2014 at 11:09am

आदरणीय डॉ गोपाल नारायण सर बहुत सुंदर रचना है, बिम्बों व प्रतीकों का सहज प्रयोग एवं रवानी ने रचना में जान डाल दी है बहुत बहुत बधाई आपको
सादर,

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 1, 2014 at 10:47pm
प्रशंसनीय , आकर्षक , बधाई .

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