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मुझे वो याद करते हैं जो भूले थे कभी मुझको,
बस ऐसे ही जहां भर की मिली है दोस्ती मुझको.   
.

ज़माना ज़ह्र  में डूबे हुए नश्तर चुभोता है,
बचाती ज़ह्र  से लेकिन मेरी ये मयकशी मुझको.    
.

मुझे कहने लगा ख़ंजर, “मुहब्बत है मुझे तुमसे,
कि इक दिन मार डालेगी तुम्हारी सादगी मुझको.” 
.

ज़माने का जो मुजरिम है सज़ाए मौत पाता है,
मिली मेरे गुनाहों पर सज़ाए ज़िन्दगी मुझको.
.

ख़ुदाया शह्र -ए-पत्थर में बना मुझ को तू आईना,
समझनी है अभी इन पत्थरों की बेबसी मुझको. 
.

बहुत नज़दीक के रिश्ते, बहुत तकलीफ़ देते हैं,
गुज़ारिश है फ़क़त इतनी, बना लो अजनबी मुझको.
.

बिखर जाऊं जहां में “नूर” बनके है यही ख्वाहिश,
मेरे मौला अता कर बरक़तों की रौशनी मुझको.
.
निलेश "नूर"
मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on July 1, 2014 at 3:36pm

धन्यवाद आ. जितेन्द्र जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on July 1, 2014 at 3:35pm

धन्यवाद आ. लक्ष्मण जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on July 1, 2014 at 3:35pm

धन्यवाद आ. राजेश कुमारी जी ..आपने भी उसी शेर पर ऊँगली रखी जो मेरे दिल के बहित करीब है ..
बहुत बहुत धन्यवाद 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on July 1, 2014 at 3:34pm

धन्यवाद आ. बृजेश जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on July 1, 2014 at 3:34pm

धन्यवाद आदरणीय गिरिराज जी ..

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on July 1, 2014 at 10:15am

आदरणीय निलेश जी, बहुत बहुत खुबसूरत गजल

ज़माने का जो मुजरिम है सज़ाए मौत पाता है,
मिली मेरे गुनाहों पर सज़ाए ज़िन्दगी मुझको.

बहुत नज़दीक के रिश्ते, बहुत तकलीफ़ देते हैं,
गुज़ारिश है फ़क़त इतनी, बना लो अजनबी मुझको.

यह दो अश:आर बहुत बेमिसाल हुए ,दिली बधाई स्वीकारिये

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 1, 2014 at 9:42am

आ0 भाई नीलेश जी बेहतरीरन गजल हुई । हर शेर अपना अलग असर छोड़ रहा है । हार्दिक बधाई कबूलें ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 30, 2014 at 9:38pm

ख़ुदाया शह्र -ए-पत्थर में बना मुझ को तू आईना,
समझनी है अभी इन पत्थरों की बेबसी मुझको. -------जबरस्त 
.

बहुत नज़दीक के रिश्ते, बहुत तकलीफ़ देते हैं,
गुज़ारिश है फ़क़त इतनी, बना लो अजनबी मुझको.-----लाजबाब 

मकते के शेर ने तो दिल मोह लिया 

हर शेर लाजबाब ,बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल ,तहे दिल से ढेरों दाद कबूलें आ० नूर जी 
.

Comment by बृजेश नीरज on June 30, 2014 at 8:59pm
बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल। आपको बहुत बहुत बधाई।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 30, 2014 at 6:26pm

आदरनीय नीलेश भाई , बेहतरीन गज़ल कही है , कुछ अशआर तो ऐसे कह दिये आपने कि मै अपने को सराहना करने के योग्य भी नही पा रहा हूँ । बस ! ढेरों बधाइयाँ स्वीकार कीजिये ।

मुझे कहने लगा ख़ंजर, “मुहब्बत है मुझे तुमसे,
कि इक दिन मार डालेगी तुम्हारी सादगी मुझको.” 
.

ज़माने का जो मुजरिम है सज़ाए मौत पाता है,
मिली मेरे गुनाहों पर सज़ाए ज़िन्दगी मुझको.
.

बहुत नज़दीक के रिश्ते, बहुत तकलीफ़ देते हैं,
गुज़ारिश है फ़क़त इतनी, बना लो अजनबी मुझको. ------------  इन अशआर ने मौन कर दिया है ॥ शब्द से परे ॥

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