For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

किताब : चार क्षणिकाएँ // --सौरभ

1.
शेल्फ़ किताबों के लिए हो सकती है
किताबें शेल्फ़ के लिए नहीं होतीं
शेल्फ़ में किताबों को रख छोड़ना
किताबों की सत्ता का अपमान है.
 
2.
कुछ पृष्ठों के कोने वो मोड़ देता है
न भी पलटे जायें बार-बार
उन पृष्ठों को खास होने का अहसास बना रहता है..
"शुक्रिया दोस्त !.."
 
3.
चाहती है किताब / पृष्ठ प्रति पृष्ठ
शब्द-शब्द जीमती दृष्टि
पलटती उंगलियों की छुअन
बूझते चले जाने की आत्मीय स्वीकृति.
हर किताब चाहती है
पढ़ा जाना
अंतर्निहित तरंगों का महसूसा जाना..
रोम-रोम.. शब्द-शब्द.. बूझा जाना.
 
4.
किताबों के अक्षर-शब्द..
किताबों में पड़ी पँखुड़ियाँ..
परस्पर निर्लिप्त !
नियमित संज्ञा / और
विशिष्ट परम्पराओं के बावज़ूद
किताबें चुपचुप कितना कुछ जीती हैं !

***************
--सौरभ
***************
(मौलिक और अप्रकाशित)

Views: 909

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 8, 2014 at 8:25pm

आपने बहुत बड़ी बात कह डाली वन्दनाजी. अच्छा है, मेरी रचना आपके उद्बोधन का कारण बनी.
प्रस्तुति को समय देने के लिए हार्दिक धन्यवाद.

Comment by Maheshwari Kaneri on June 8, 2014 at 4:50pm

इस सुन्दर प्रस्तुति पर.बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं

Comment by coontee mukerji on June 8, 2014 at 3:39pm

हर किताब चाहती है
पढ़ा जाना......इन दो लाइनों में सारा जीवन दर्शन समाया हुआ है.... लाजवाब कविताएँ सौरभ जी, लाइब्रेरी की किताबों पर जमीं धूल कब उड़ेगी किताबें रुग्नावस्था में पूछ रही है....

और आपके शब्दों में...
किताबों के अक्षर-शब्द..
किताबों में पड़ी पँखुड़ियाँ..
परस्पर निर्लिप्त !
नियमित संज्ञा / और
विशिष्ट परम्पराओं के बावज़ूद
किताबें चुपचुप कितना कुछ जीती हैं !....

अनेक आशाओं के साथ कि किताबों के भी अच्छे दिन आऐंगे.साधुवाद.

Comment by vijay nikore on June 8, 2014 at 8:37am

किताबें, और उनमें जी रही कविताएँ कितनी बार उँगली पकड़ कर हमें कहाँ से कहाँ ले जाती हैं...

कभी दोस्त बन कर हमारी भावनाओं  को सुनती हैं, कुछ सुनाती हैं.. वह जो हम कभी किसी और से

साझा नहीं कर सकते ...  अकेलापन उगलती कई रातों में प्राय: केवल किताबें ही तो साथ देती हैं।

१९६४ में अमृता प्रीतम जी ने मुझसे एक सवाल पूछा था , " विजय जी, हम किताबों में रहते हैं या किताबें हमारे अन्दर रहती हैं?"...

पल-दो-पल हम दोनों चुप रहे, फिर मेरे ओंठों पर ’एक कोर’ छोटी-सी तिरछी मुस्कान देख कर कहने लगीं... पंजाबी में...

" मैं थुवाडा जवाब थुवादे कए बगैर सुण लिता ए"... हिन्दी अनुवाद, "मैंने आपका जवाब आपके कहे बिना सुन लिया है"।

... कि जब हम अपने भीतर किसी सुरंग में रह रहे होते हैं तो वहाँ किताबें ही अपने पन्ने पलटती हमारे अन्दर रहती हैं ...

आपने अपनी रचना में किताबों के कितने पहलू हमारे सामने रखे हैं...आपको हार्दिक बधाई।

एक बात और कहूँ ...  किताबें हमारी आत्मा से रिश्ता बनाती हैं और निभाती भी हैं।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on June 7, 2014 at 4:11pm

आदरणीय सौरभ सर ..अत्यंत गंभीर रचनाएँ हैं ,, बस मुड़े पृष्ट वाली रचना के गाम्भीर्य को मैं उतनी गहराई से समझ नहीं पाया ..बार बार पढने के बाद के बाद कुछ कुछ समझ में आया ..आपकी रचनाएँ प्रतीकात्मक होती है और गंभीरता लिए होती हैं ....इन सुंदर क्षणिकाओं के लिए तहे दिल बधाई ..सादर प्रणाम के साथ 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on June 7, 2014 at 1:19pm

आदरणीय सौरभ जी 

आपकी संवेदनशीलता ने और शब्दों की कारीगरी ने किताबों का जिस प्रवीणता से मानवीकरण किया है कि उनकी सत्ता के तहत कितना कुछ प्राणवान हो उठा हैं .... उस पर मेरा अंतर्पाठक अचंभित है.. मंत्रमुग्ध है.

अतिशयोक्ति न समझें तो.......प्रोज़ में मुझे संवेदनाओं की सांद्रता पर जितना खलिल जिब्रैन ने प्रभावित क्या है.. आपकी इस प्रस्तुति को भी बिलकुल उसी स्तर पर देख रही हूँ, महसूस कर रही हूँ मैं.

इन क्षणिकाओं को  सचित्र पोस्टर पर अंकित करवा कर अपनी लाइब्रेरी में लगाने का मन है.

बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं इस सुन्दर प्रस्तुति पर.

सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 7, 2014 at 11:21am

बिना पूछे फेस बुक पर शेयर की है आपकी ये रचना :)


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on June 7, 2014 at 11:17am

एक शेर याद आया ----शेल्फ में  फ़सुर्दा किताबी दुनिया में जश्न का माहौल है ,आज उस घर की शायद बिजली जाएगी....

टीवी ,नेट ने लोगों को इतना मसरूफ़ कर दिया कि शेल्फ की तरफ ध्यान ही नहीं जाता. वो भी दिन थे कि हाथों से क़िताब नहीं छूटती थी आपकी हर क्षणिका में एक सबक है कम से कम हम रचनाकारों को तो लेना ही चाहिए |...बहुत प्रभावी प्रस्तुति आ० सौरभ जी ,हार्दिक बधाई |  

Comment by vandana on June 7, 2014 at 6:38am

कुछ पृष्ठों के कोने वो मोड़ देता है 
न भी पलटे जायें बार-बार 
उन पृष्ठों को खास होने का अहसास बना रहता है.. 
"शुक्रिया दोस्त !.." 

काश यह बात इंसान भी अपना ले तो अहंकार को थोडा ब्रेक लग सके 

बहुत सुन्दर भाव हैं आदरणीय सौरभ सर सभी क्षणिकाओं के 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 7, 2014 at 3:54am

आदरणीय शरदिन्दुजी, आपने Shelf का देवनागरी लिपि में सही हिज्जे बता कर मुझ पर बहुत उपकार किया है. वाकई मुझसे लापरवाही हुई है.
चलिये सर, यह मंच हमारे-आपके स्तर पर अब भी सीखने-सिखाने का ही मंच है. हमारी दृष्टि में इसके प्रति यह सम्मान बना रहे.  .. :-))

आपको मेरी प्रस्तुति सार्थक लगी, प्रस्तुति को मिला यह पाठकीय अनुमोदन है. हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय.
सादर

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"यूॅं छू ले आसमाॅं (लघुकथा): "तुम हर रोज़ रिश्तेदार और रिश्ते-नातों का रोना रोते हो? कितनी बार…"
Apr 30
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"स्वागतम"
Apr 29
Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
Apr 28
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
Apr 28
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
Apr 27
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
Apr 27
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
Apr 27
Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
Apr 27

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service