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वो गंगा की धारा 

वो निर्मल किनारा 

जहाँ माँ थी लेटी

हमें कुछ न कहती 

हमें याद है वो 

निर्मल सा चेहरा 

अभी कुछ था कहना 

अभी कुछ था सुनना 

याद आ रहा था 

माँ का तराना 

जिसे गाया करती थी 

माता हमारी ... 

उठाया करती 

वो गाकर तराना 

मगर आज वो लेटी 

हमे कुछ न कहती 

पानी था निर्मल 

वो अश्रु की धारा 

रोके न रुकी थी 

वो आँखों की धारा 

वही था वो सूरज 

वही था किनारा 

मैंने माँ को देखा 

जैसे वो हंसी थी

मगर वो थी लेटी 

हमें कुछ न कहती 

खत्म हो रहा था 

वो सूरज का तेवर

वो चिता का जलाना 

वो दिल का पिघलना 

जहाँ माँ थी लेटी 

बचा कुछ नहीं था 

वही था किनारा 

वही थी वो धारा 

बची बस वो यादें 

माँ की पुरानी 

जिसे लेकर बैठा 

मैं अब भी किनारे .... 

मेरी माँ बसी है 

मेरे मन के अंदर .... 

मुझे याद  आ रहा था 

माँ का वो तराना .... 

उठ जाग मुसाफिर भोर भयी ...... 

"मौलिक व अप्रकाशित "

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Comment

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Comment by Amod Kumar Srivastava on April 30, 2014 at 7:51pm

उत्साहवर्धन के लिए बहुत बहुत आभार डा0प्राची जी ... ये दर्द था ... जो मैंने उकेरने की कोशिश करी है ... धन्यवाद 

Comment by Amod Kumar Srivastava on April 30, 2014 at 7:49pm

बहुत बहुत आभार आ0जितेंद्र गीत जी ...


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on April 30, 2014 at 7:20pm

मर्मस्पर्शी 

माँ की पार्थिव देह को समक्ष पाना........... इस अकल्पनीय पीर को मार्मिकता से शब्द मिले हैं 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 23, 2014 at 6:46am

बहुत मर्मस्पर्शी रचना आदरणीय आमोद जी

Comment by Amod Kumar Srivastava on April 22, 2014 at 1:16pm

बहुत बहुत आभार आ0 लक्ष्मण जी ... 

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 21, 2014 at 6:53pm

अंतिम दर्शन के र्रोप में श्रद्धांजली में सुन्दर भाव पिरोये है | वाह !

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