आत्म-धन
होगी ज़रूर कोई गहरी पहचान
दर्द की तुम्हारे इस दर्द से मेरे
कि जाने किन-किन तहों से उभरती
छटपटाती
लौट आती है वही एक याद तुम्हारी
यादों के कितने घने अँधियाले
पेड़ों के पीछे से झाँकती ...
मैंने तो कभी तुमको
इतना स्नेह नहीं दिया था
भीगी आँखों से, हाँ,
भीगी आँखों को देखा था
कई बार... खड़े-खड़े ... चुपचाप
पंख कटे पक्षी-सा तड़पता
ठहर नहीं पाता है मन पल-भर कहीं
तुम्हारा .... न मेरा
सुलगती है ऐसे में आग नित्य अकस्मात
अर्थहीन असंतोष की
कुछ जल्दी मुरझा जाता है हर दिन हमारा
झुक आती है झट पहचानी साँझ संवलाई
और उभर-उभर आते हैं
कितने नए-नए सवालों के अनजाने कर्ज़
भीतरी अँधेरे भयानक वीरानों से
कई घने पुराने कितने
बड़े-बड़े दर्द
... मेरे आत्म-धन
-------
--- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
//ह्रदय में अन्दर तक उतरती हुई बहुत ही गहराई लिए हुए अत्यंत उत्कृष्ट कविता//
आपकी सराहना ने मेरे प्रयास को सार्थकता दी है। हार्दिक आभार आदरणीय राहुल जी।
//अमूर्तता को जीने का साहस देती हुई आपकी भावपूर्ण रचना को कई बार पढ़ा।
पता नहीं रचना गहराई तक मैं पहुंच पाई कि नहीं लेकिन पढकर सुखद अनुभूति हुई।//
आदरणीया वंदना जी, आप सदैव रचनाओं को अनूठी सूक्षम दृष्टि से पढ़ती हैं, अत:
रचना की गहराई तक पहुँचती हैं। सराहना के लिए हार्दिक आभार।
सादर,
विजय निकोर
कितने नए-नए सवालों के अनजाने कर्ज़
भीतरी अँधेरे भयानक वीरानों से
कई घने पुराने कितने
बड़े-बड़े दर्द
.. मेरे आत्म-धन
अंतर्वेदना को बहुत गहरे भाव मिले, मौन रहकर भी सब कुछ बयां करती पंक्तियाँ , बधाई स्वीकारें आदरणीय विजय जी
//कविता का मौन जाने किस किस गहराइयों में जीता है प्रेम को , समर्पण को , पीड़ा को//
कविता के भावों के अनुमोदन के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय अरुन जी।
सादर,
विजय निकोर
आदरणीय विजय निकोर सर बेहतरीन रचना है बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिये
सादर
मधुर समबनधोन के दर्द को दिल मे छुपाये गहरि अनुभुतियो से रचि रचना के लिये बहुत बहुत बधाइ आदरनिय
आदरणीय विजय निकोर सर समर्पण भाव का हृदयस्पर्शी चित्रण बहुत बहुत बधाई आपको
आदरणीय बड़े भाई , अनकहे प्रेम की गहरी अनुभूतियों की झलक देती सुन्दर रचना के लिये बहुत बधाई.
पंख कटे पक्षी-सा तड़पता
ठहर नहीं पाता है मन पल-भर कहीं
तुम्हारा .... न मेरा
मन के कसक की अदभुत अभिव्यक्ति
//सुलगती है ऐसे में आग नित्य अकस्मात
अर्थहीन असंतोष की//.....//कितने नए-नए सवालों के अनजाने कर्ज़
भीतरी अँधेरे भयानक वीरानों से
कई घने पुराने कितने
बड़े-बड़े दर्द
... मेरे आत्म-धन// श्रद्धेय, अप्रतिम है आपकी सोच इन पंक्तियों में. आपकी सभी रचनाओं में अनकही दार्शनिकता रचना के स्तर को एक अनुपम आकाश प्रदान करती है. यहाँ भी कोई व्यतिक्रम नहीं है. अंतस को बड़ी तृप्ति मिली. शतेक नमन.
मैंने तो कभी तुमको
इतना स्नेह नहीं दिया था
भीगी आँखों से, हाँ,
भीगी आँखों को देखा था
कई बार... खड़े-खड़े ... चुपचाप
कुछ रिश्तों में लेन-देन जरुरी नहीं होता शायद .....बस महसूस करना उसके होने को ....यही उसके मायने होते है .....हर शब्द दिल से गुज़र गया .....लाजवाब ...बहुत खूबसूरत और भावनाओं से लबरेज़ रचना के दिल हार्दिक बधाई सर .......
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2025 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online