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ग़ज़ल : जब से तू निकली दिल से हम सरकारी आवास हो गये

जुड़ो जमीं से कहते थे जो, वो खुद नभ के दास हो गये

आम आदमी की झूठी चिन्ता थी जिनको, खास हो गये

 

सबसे ऊँचे पेड़ों से भी ऊँचे होकर बाँस महोदय

आरक्षण पाने की खातिर सबसे लम्बी घास हो गये

 

तन में मन में पड़ीं दरारें, टपक रहा आँखों से पानी

जब से तू निकली दिल से हम सरकारी आवास हो गये

 

बात शुरू की थी अच्छे से सबने खूब सराहा भी था

लेकिन सबकुछ कह देने के चक्कर में बकवास हो गये

 

ऐसे डूबे आभासी दुनिया में हम सब कुछ मत पूछो

नाते, रिश्ते और दोस्ती सबके सब आभास हो गये

 

शब्द पुराने, भाव पुराने रहे ठूँसते हर मिसरे में

कायम रहे रवायत इस चक्कर में हम इतिहास हो गये

---------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Views: 631

Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 11:27pm

बहुत बहुत शुक्रिया गीतिका 'वेदिका' जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 22, 2013 at 11:27pm

बहुत बहुत धन्यवाद MAHIMA SHREE जी


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 3, 2013 at 1:32pm

एक स्पष्ट, संयत एवं तार्किकता का निर्वहन करती हुई मुकम्मल ग़ज़ल हुई है, आदरणीय धर्मेन्द्रजी. किस शेर को पर क्या कहूँ, एक अनुभव हो रहा है शेर-दर-शेर गुजरना.

सबसे ऊँचे पेड़ों से...  ने जहाँ मोह लिया है वही,  बात शुरु की थी अच्छे से..  ने ऐसे तथ्य साझा किये हैं जिसे हर सुननेवाला झेलता है और कहने या सुनाने का मौका मिल जानेवाला पतियाता तक नहीं है.  भाईजी, रचनाकर्म का पूरा क्षेत्र  ऐसे  न-पतियाते  लोगों से कितना त्रस्त है, अब इस पर क्या कहना !
इसीतरह, ऐसे डूबे आभासी दुनिया में..  ने आज की तल्ख़ सचाई को करीने से साझा किया है, तो, शब्द पुराने, भाव पुराने..  मध्यवर्गीय परिवार के हर मुखिया की कहानी है.


दिल से बधाई लें, आदरणीय.

Comment by वीनस केसरी on October 1, 2013 at 9:41pm

बधाई बधाई बधाई

भाई ढेरो बधाई ग़ज़ल को इस शनदार ढंग से निभा ले जाने के लिए

इतनी लंबी बहर का सबसे बड़ा खतरा भर्ती के शब्दों का होता है, बल्कि कहना चाहिए कि भर्ती के वाक्यों का खतरा बन जाता है मगर आपकी ग़ज़ल में मुझे एक भी शब्द ऐसा नहीं दिखा जो व्यर्थ ठूसा गया हो ,,,

कहन पर तो टिपिकल सज्जन धर्मेन्द्र की छाप स्पष्ट है ही
कुल मिला कर मैं मजबूर हो जाता हूँ

हर शेर पर एक ही शब्द दिमाग में कौंधता है

// जिंदाबाद //


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 1, 2013 at 9:01pm

ऐसे डूबे आभासी दुनिया में हम सब कुछ मत पूछो

नाते, रिश्ते और दोस्ती सबके सब आभास हो गये-----एक सटीक सच्चाई यही तो हो रहा है आजकल 

 

सबसे ऊँचे पेड़ों से भी ऊँचे होकर बाँस महोदय

आरक्षण पाने की खातिर सबसे लम्बी घास हो गये-----शानदार व्यंग्य 

बहुत शानदार प्रस्तुति वाह वाह धर्मेन्द्र  जी बधाई आपको 

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on October 1, 2013 at 5:36pm

 आदरणीय  सिंह जी 

बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है...

सबसे ऊँचे पेड़ों से भी ऊँचे होकर बाँस महोदय

आरक्षण पाने की खातिर सबसे लम्बी घास हो गये.........वाह बेजोड़ कहन ..बहुत सही हकीकत बयानी 

हार्दिक शुभकामनाएं 

Comment by विजय मिश्र on October 1, 2013 at 4:36pm
धर्मेन्द्रजी , जमीनी बात सलीके से बिखेरी , बहुत उम्दा और बेहद खूबसूरत . बधाई .
Comment by अरुन 'अनन्त' on October 1, 2013 at 4:30pm

आदरणीय धर्मेन्द्र सर आपकी गज़लें हम जैसे नौसिखिओं को बहुत कुछ सिखा जाती हैं हरेक शेर सच्चाई को बयां करता हुआ अत्यंत सुन्दर बन पड़ा है, बहुत ही उम्दा बेहतरीन ग़ज़ल दिली दाद कुबूल फरमाएं.

Comment by SANDEEP KUMAR PATEL on October 1, 2013 at 2:26pm

आदरणीय धर्मेन्द्र सर सादर प्रणाम

इस बेहतरीन ग़ज़ल के हर इक अशआर में आपकी छाप साफ दिखाई देती है

हर इक अशआर अपने आप में एक कहानी कहता हुआ

इस शानदार ग़ज़ल के लिए दिली दाद हाजिर हैं

जय हो सर जय हो

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 1, 2013 at 10:08am

तन में मन में पड़ीं दरारें, टपक रहा आँखों से पानी

जब से तू निकली दिल से हम सरकारी आवास हो गये.....वाह! बहुत खूब, गजब का शेर
लाजवाब गजल, तहे दिल से दाद कुबूल कीजिये आदरणीय धर्मेन्द्र जी

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