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ग़ज़ल : सच वो थोड़ा सा कहता है

बह्र : मुस्तफ्फैलुन मुस्तफ्फैलुन

----

सच वो थोड़ा सा कहता है

बाकी सब अच्छा कहता है

 

दंगे ऐसे करवाता वो

काशी को मक्का कहता है

 

दौरे में जलते घर देखे

दफ़्तर में हुक्का कहता है

 

कर्मों को माया कहता वो

विधियों को पूजा कहता है

 

जबसे खून चखा है उसने

इंसाँ को मुर्गा कहता है

 

खेल रहा वो कीचड़ कीचड़

उसको ही चर्चा कहता है

 

चलता है जो खुद सर के बल

वो सबको उल्टा कहता है

 

तेरा क्या होगा रे ‘सज्जन’

अंधे को अंधा कहता है

--------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Views: 530

Comment

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Comment by वेदिका on October 7, 2013 at 1:36am

वाह! क्या कहिए गज़ल की शान को, बहुत खूबसूरत!! 

खेल रहा वो कीचड़ कीचड़

उसको ही चर्चा कहता है,, क्या बात कही है!

Comment by विजय मिश्र on October 4, 2013 at 1:04pm
"तेरा क्या होगा रे ‘सज्जन’
अंधे को अंधा कहता है||" -- बात एकदम से मन को छू लेती है,सहज ही एक निर्दोष भाव को जन्म देती है ,यह काल की करालता है कि सच से लोगों को गुरेज है ,सच चुभता है ' निर्विवाद सुंदर रचना . बधाई हो धर्मेन्द्रजी .
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on October 4, 2013 at 12:00pm

खेल रहा वो कीचड़ कीचड़

उसको ही चर्चा कहता है............वाह! क्या बात है 

 

चलता है जो खुद सर के बल

वो सबको उल्टा कहता है.........बहुत खूब, सशक्त सार्थक शेर

बहुत बढ़िया गजल, बहुत बहुत बधाई आदरणीय धर्मेन्द्र जी

Comment by Sanjay Mishra 'Habib' on October 4, 2013 at 9:07am

जबसे खून चखा है उसने

इंसाँ को मुर्गा कहता है... वाह!

बड़ी शानदार गजल आदरणीय धर्मेन्द्र भाई जी... सादर बधाई स्वीकारें....

Comment by annapurna bajpai on October 3, 2013 at 10:33pm

आदरणीय धर्मेंद्र जी बहुत ही बढ़िया गजल हुई है सभी शेर बहुत ही उम्दा है बहुत बधाई । 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 3, 2013 at 9:12pm

दौरे में जलते घर देखे

दफ़्तर में हुक्का कहता है

 

कर्मों को माया कहता वो

विधियों को पूजा कहता है

 

जबसे खून चखा है उसने

इंसाँ को मुर्गा कहता है

 

खेल रहा वो कीचड़ कीचड़

उसको ही चर्चा कहता है

 

चलता है जो खुद सर के बल

वो सबको उल्टा कहता है

वाह ज़नाब ! ..  बधाई !!

Comment by Abhinav Arun on October 3, 2013 at 8:40pm

जबसे खून चखा है उसने

इंसाँ को मुर्गा कहता है

 

खेल रहा वो कीचड़ कीचड़

उसको ही चर्चा कहता है....  अशार सादगी और साहस  भरे हैं.. शानदार ..आपके तरकश को बधाई आदरणीय :-)

Comment by Saarthi Baidyanath on October 3, 2013 at 8:36pm

जबसे खून चखा है उसने

इंसाँ को मुर्गा कहता है......उम्दा :)

Comment by आशीष नैथानी 'सलिल' on October 3, 2013 at 8:26pm

चलता है जो खुद सर के बल

वो सबको उल्टा कहता है |

वाह, बढ़िया ग़ज़ल धर्मेन्द्र जी  !

  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on October 3, 2013 at 7:01pm

हर एक शेर लाजवाब है आ० धर्मेन्द्र जी 

हार्दिक बधाई इस ग़ज़ल पर 

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