For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

वक़्त का ही खेल है सारा यहाँ पे

२१२२      २१२२         २१२

खोजता तू  रेत पर जिनके निशान

अब सभी वो मीत तेरे आसमान

हैं घरोंदे  तेरे रोशन जुगनुओं से

उनके घर दीपक जले सूरज समान

उनके घर में तब जवाँ होती है  शाम

तीरगी में जब छुपे  सारा जहान

वक़्त का ही खेल है सारा यहाँ पे

देखते कब होता हम पर मिहरवान  

वो नवाबों जैसी जीते हैं हयात

हम फकीरी को समझते अपनी शान

दौड़ कर ही तेज वो पीछे हुये थे

भूल बैठे गोल है अपना जहान

झोपड़े को देख कर वो हँस रहे थे

दब गया महलों के मलवे में गुमान

मौलिक व अप्रकाशित

डॉ आशुतोष मिश्र 

Views: 796

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by CHANDRA SHEKHAR PANDEY on September 25, 2013 at 1:46pm

गजल की भावभूमि अच्छी लगी, हार्दिक बधाई आदरणीय।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 18, 2013 at 2:07pm

अरुण जी आपसे मैं बिलकुल सहमत हूँ ..आपके मशविरे पर पूरा ध्यान दूंगा ..हार्दिक धन्यवाद के साथ 

Comment by अरुन 'अनन्त' on September 18, 2013 at 10:27am

आदरणीय आशुतोष जी आप वाकई ग़ज़ल पर बहुत मेहनत कर रहे हैं, किन्तु मेहनत के साथ साथ ध्यान देने की भी आवश्यकता है. बाकी आदरणीय सौरभ सर एवं शिज्जू जी ने कह ही दिया है उनकी बातों पर ध्यान दें. इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकारें.

Comment by annapurna bajpai on September 17, 2013 at 11:21pm

आ0 आशुतोष जी सुंदर गजल । बधाई आपको ।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 17, 2013 at 4:07pm

आदरणीय शिज्जू जी ..मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद ......मैं आपकी बात से बिलकुल सहमत हूँ .. भविष्य में भी आपका स्नेह और मार्गदर्शन यूं ही मिलता रहेगा ..ऐसी अभिलाषा के साथ

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 17, 2013 at 3:57pm

आदरणीय सौरभ जी ..आपके स्नेहिल शब्दों से बड़ा संबल मिला ..उधृत मिसरों से अपनी कमी का अहसास हुआ ..भविष्य में मैं इस का ध्यान रखूंगा ..सादर प्रणाम के साथ 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 17, 2013 at 11:08am

आदरणीय डॉ आशुतोष जी ग़ज़ल के पीछे आप निस्संदेह मेहनत कर रहे हैं लेकिन मै एक हकीर राय आपको देना चाहता हूँ आप अपनी ग़ज़ल के हर शेर को पर्याप्त समय दें लिखने के बाद बार बार पढ़ें पहले आप स्वयं आश्वस्त हों उसके बाद आप पेश करें, चाहे जितना भी वक्त लगे.
कुछ बातें और आपसे  साझा करना चाहूँगा
किसी भी अरकान के आखिर में आप अतिरिक्त लघु ले सकते हैं बशर्ते वह शब्द का एक हिस्सा हो न कि मुकम्मल शब्द और इसे बह्र मे शामिल नही किया जाता, एक बात और ध्यान देने की है अतिरिक्त लघु लघु ही होना चाहिये दीर्घ को गिरा कर लघु नही किया जाना चाहिये,

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 17, 2013 at 10:35am

१. हैं घरोंदे  तेरे रोशन जुगनुओं से = हैं घरोंदे  तेरे रोशन जुगनुओं  .. यह वाक्य भी मायनों के लिहाज से सही है. या ठीक कर लें.

२. वक़्त का ही खेल है सारा यहाँ पे = वक़्त का ही खेल है सारा यहाँ

३. देखते कब होता हम पर मिहरवान = मिहरवान शब्द को ठीक कर लें. बस.

४. दौड़ कर ही तेज वो पीछे हुये थे = दौड़ कर वो तेज पीछे हो गये  या तेज दौड़े फिर भी पीछे हो गये.. या ऐसा ही कुछ.

५. झोपड़े को देख कर वो हँस रहे थे =  झोपड़े को देख वो क्या हँस रहे .. या ऐसा ही कुछ.

आगे आपकी पूरी ग़ज़ल दुरुस्त है, आदरणीय आशुतोष भाईजी. आपने भी देखा होगा जो मिसरे ऊपर उद्धृत हुए हैं उनमें क्या कमी थी और मिसरे कैसे सही माने जायेंगे.

आपसे सादर अनुरोध है कि इस मंच पर आपस में सीखने के अर्थ और मर्म को समझें. महाविद्वान  यहाँ कोई नहीं, न ही कोई पुराना और सक्रिय सदस्य इसका डंका पीटता है.

हर नया सदस्य अपनी दुनिया लेकर आता है और उसी नज़रिये से हमारे मंच के वातावरण को भी देखता-समझता है. मगर धीरे-धीरे वह भी समझ-बूझ कर समरस हो जाता है. जो कतिपय कारणों से समरस नहीं हो पाते वे वाही-तबाही बकते हुए माहौल खराब करते फिरते हैं और आखिर में अपनी राह निकल जाते हैं.  

हाँ, डॉ. ललित क्या कुछ कर रहे हैं, संभवतः आने वाले दिनों में उनको भी भान हो जायेगा. फिलहाल वे भी कुछ-कुछ कह ही रहे हैं. और हम सब भी सुन ही रहे हैं. यह अवश्य है कि खुन्नस में कुछ कह जाना या सुझाव आदि दे देना उचित नहीं.

सादर

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 17, 2013 at 8:13am

आदरणीय अविनव जी ..आपकी सलाह पर अमल करते हुए भरसक प्रयास करूंगा ..आपसे यूं ही मार्गदर्शन की सतत उम्मीद के साथ ..

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 17, 2013 at 8:10am

आदरणीय डॉ ललित जी ..आपने मेरी मनोदशा को सही पढ़ा ..सर एक बात आपसे पूछनी थी  ,,,खोजता तू रेत पर जिनके निशान ,,की बहर २१२२    २१२२   २१२१ हो सकती है की नहीं ...मैंने पहले यही बहर रखी थी ..लेकिन कहीं पढ़ा था की अंत में १ का जिकर करने की जरूरत नहीं होती है ..मैं शायद इस बात के मर्म को नहीं समझ सका ....मिहरबान,,,,,गुमान का दबना ,, लिखने जैसी गलती वाकई नहीं होनी थी ..इस पक्ष की जानकारी होने के बाद ऐसी गलती वाकई मेरी लापरवाही है ... आपकी ग़ज़ल पढी ...उससे मुझे बड़ा मार्गदर्शन मिला ..आप जैसे बिद्वत जनों का सानिध्य मिलता रहेगा तो निरंतर सीखने को मिलेगा ....रही बात नारजगी की तो छात्र यदि नाराज हो गया तो उसके जीवन में कोई ऐसी रिक्तता रह जायेगी जिसे तमाम जीवन वो भर नहीं पायेगा ..बस यूं ही आशीर्वाद बनाये रखें ......सादर प्रणाम के साथ 

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"यूॅं छू ले आसमाॅं (लघुकथा): "तुम हर रोज़ रिश्तेदार और रिश्ते-नातों का रोना रोते हो? कितनी बार…"
yesterday
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"स्वागतम"
Sunday
Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
Sunday
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
Sunday
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
Saturday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
Saturday
Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
Saturday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service