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" अम्मा ने कहा था"( लघु कथा )

उषा आज फिर देर से आई । मै कुछ पूछने को लपकी ही थी कि उसका चेहरा देख रुक गई, वह सिर पर पल्लू रखे चेहरे को छुपाने का प्रयास कर रही थी । वह अंदर आई और चुपचाप बर्तन उठाये और धोने बैठ गई । उसकी एक  आँख पूरी काली थी चेहरे पर और गर्दन पर कई निशान थे । कुछ न पूछना ही मुझे ठीक लगा । काम निपटा कर वह अंदर आई । मुझसे रहा न गया मैंने पूंछ ही लिया – “उषा क्या बात है आज फिर तुम्हारे पति ने तुम्हें .......” बात पूरी भी न हो पाई कि वह बीच मे ही काट कर बोली – “ नहीं भाभी ये तो देवता का परसाद है , अम्मा ने कहा था कि पति की हर बात, हर काम उसका परसाद समझ सिर माथे लगाना , वो  ही  तुम्हारा देवता है । और वो कड़वी सी हंसी हंस कर चल दी ।   

मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by विजय मिश्र on August 24, 2013 at 4:21pm
इस कथा की प्रसंशा करूँ तो मन का भाव बिगड़ता है , आशय के दृष्टिकोण से अतृप्त करने वाली रचना है .
Comment by बृजेश नीरज on August 24, 2013 at 11:50am

अच्छी लघुकथा! अब भी भारतीय परिवारों में यही स्थिति है। भारतीय परिवेश का यह पहलू बहुत दुखद है।
इस संदेश को इतनी सुन्दरता से प्रकट करने के लिए आपको हार्दिक बधाई!
सादर!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 24, 2013 at 10:10am
अन्नपूर्णा जी , बीते समय की याद दिलाती एक अच्छी लघुकथा कथा !!

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 24, 2013 at 10:05am
अच्छी लघु कथा पर ,बहुत पुराने समय को याद कर आज लिखी लघुकथा है !!

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 24, 2013 at 10:03am

आदरणीया अन्नपूर्णा जी नारियों की ये सोच और अंधानुसरण ही नारियों को पतन के गर्त में धकेल देती हैं पर वो वक़्त पुराना था जिसमे पति को देवता का दर्जा  और नारी को देवी का दर्जा  दिया जाता था आज वक़्त को देखते हुए वैचारिकता में भी बदलाव आया है नारियों ने भी अपनी इस सोच को बदल लिया है किन्तु कुछ तबको में अभी भी बहुत कुछ बदलना बाकी है धीरे-धीरे स्थिति सुधरेगी आदरणीय योगराज जी की बात से पूर्णतः सहमत हूँ इस लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई। 

Comment by annapurna bajpai on August 23, 2013 at 11:35pm
आदरणीय हेमंत जी आपका हार्दिक आभार ।
Comment by hemant sharma on August 23, 2013 at 11:20pm
ये सत्य है कि आजकल ऐसा देखने मे नहिं आता लेकिन कथा का निहितार्थ विचारणीय है. नारी आज भी उतनी ही तुच्य वस्तु है एक पुरुष के लिये जितनी की वह रामायण और महाभारत के काल मे थी. एक साधन की तरह इस्तमाल करने का आदी हो चुका है, उसे बार बार रौंदकर वह अपने आप को विश्वास दिलाता है कि वह अब भी वैसा हि है जैसा कि सदियों पहले था. सार्थक प्रयास के लिये बधाई. सादर .
Comment by annapurna bajpai on August 23, 2013 at 10:48pm

आदरणीय राम शिरोमणि जी , केवल भाई जी  एवं आदरणीया विनीता जी , गीतिका जी आपका हार्दिक आभार ।

Comment by annapurna bajpai on August 23, 2013 at 10:41pm
आदरणीय प्रभाकर जी मैंने जिस नारी का चित्रण किया है वह गाँव की भोली भाली नारी है जिसको बस इतना ही समझ आया कि अम्मा ने जो कहा वह ही सही है । ........ यह मेरा पक्ष है ।
आपकी बात अपनी जगह एकदम सही है ऐसा आज के युग मे कम ही होता है । और मुझे अपनी पोस्ट पर आपकी टिप्पणी पढ़ कर बहुत अच्छा लगा । आपसे सदैव मार्ग दर्शन कि अभिलाषा मुझे रहेगी । सादर ।

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on August 23, 2013 at 9:57pm

//नहीं भाभी ये तो देवता का परसाद है//

यह कुछ ज्यादा नहीं हो गया अन्नपूर्णा जी ? माना कि हमारे यहाँ पति को देवता (तथाकथित) माना जाता है लेकिन किसी को मार पिटाई को देवता का प्रसाद कहते मैंने कहीं न सुना न देखा। मेरी नज़र में ये ही लघुकथा की कमज़ोर कड़ी है। अगर यही लघुकथा मैं कहता तो उस कहानी में चेहरे और शरीर पर चोटों के निशान देखकर उसकी माँ पूछती कि क्या हुआ, तब ऊषा बताती कि जिस पति को परमेश्वर मानने की नसीहत उसने दी थी यह चोटें उसी देवता का प्रसाद हैं।

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