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बहू बनाम बेटी ( लघु कथा )

बहू बनाम बेटी

 

राधा जी घर मे अकेली थी , बेटा बहू के साथ उसकी बीमार माँ को देखने चला गया था । उसने कुछ पूछा भी नहीं बस आकार बोला – माँ हम लोग जरा कृतिका की माँ को देखने जा रहे है शाम तक आ जाएँगे । आपका खाना कृतिका ने टेबल पर लगा दिया है टाइम पर खा लेना , तुम्हारी दवाएं भी वही रखी है खा लेना भूलना मत ,और दरवाजा अच्छे से बंद कर लेना ।” कहता हुआ वो कृतिका के साथ बाहर निकल गया । पर बहू ने एक शब्द भी न कहा । “क्या वो कहती तो क्या मै मना कर देती । बहुयेँ कभी बेटी नहीं बन सकती आखिर बेटी तो बेटी ही होती है । “ वे सोचती हुई गेट तक आई और अच्छी तरह गेट बंद कर दिया । बाहरी कमरे मे टी वी ऑन कर बैठ गई। कुछ ही देर बाद डोर बेल घनघना उठी । उठ कर दरवाजा खोला देखा उनकी अपनी बेटी दामाद के साथ खड़ी है । खुशी से उनका चेहरा खिल उठा । बेटी को गले लगाते हुए पूछा- “तेरी सास ने मना नहीं किया ”, “वह बोली उनकी सुनता कौन है उनके लिए तो उनका बेटा है , वही उनको संभाल लेते है मै तो बोलती भी नहीं । और आज भी ये ही उन्हे बोल कर आए हैं मैंने न उनसे कुछ पूछा न कहा । बस ड्यूटी पूरी कर देती हूँ ताकि बेटे से शिकायत का मौका न मिले । बाप रे ! ससुराल का चैपटर मेरे बस का नहीं । ” मुसकुराते हुए उन्होने अपनी  बेटी की इस करतूत को कितनी  आसानी से भुला दिया।    

 

अप्रकाशित एवं मौलिक 

 

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Comment by annapurna bajpai on August 29, 2013 at 12:30pm

आदरणीय जितेंद्र जी आप सही कह रहे है यदि बेटियां और बहुए सब ऐसा सोकह पाये  तभी कोई बात बने ।

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 28, 2013 at 10:52am

आज का दौर ही ऐसा हो चुका है, क्या बेटी और बहु को कभी सास नही बनना ? 

बहुत ही सटीक विषय पर, एक तुलनात्मक चित्रण बतलाती लघुकथा पर, हार्दिक बधाई आदरणीया अन्नपूर्णा जी

Comment by annapurna bajpai on August 27, 2013 at 10:13pm

आ० प्राची जी मै आपकी बात पूरी तरह सहमत हूँ हम सभी इससे अछूते रहें । 

Comment by annapurna bajpai on August 27, 2013 at 10:12pm

आ० विजय मिश्रा जी आपका कथन एकदम सत्य है , आज की संस्कार प्रणाली मे ही दोष आ गया है । लोग आजाद रहना ज्यादा पसंद करते है । उम्र की आखिरी दहलीज पर खड़े माता पिता ही बोझ लगते है । 

Comment by annapurna bajpai on August 27, 2013 at 10:08pm

आ० राजेश कुमारी जी आपका हार्दिक आभार । 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on August 27, 2013 at 9:37pm

संवेदनहीन रिश्तों के खोखलेपन को बेनकाब करती और बेटी बहू में भेद करती मानसिकता को प्रस्तुत करती एक सामाजिक अभिव्यक्ति.

हम आप इससे अछूते रहें :)))))))))))) यही शुभकामनाएँ 

Comment by विजय मिश्र on August 27, 2013 at 5:21pm
संभवतः आजकी जो संस्कार निर्मित्ति की प्रक्रिया है उसमें ही दोष आ गया है ,शीलता और शिष्टता के ह्रास का गणित तीव्रता से शून्य स्पर्श करना चाहता है . लोग उन्मुक्त और स्वच्छंद विचरण पसंद हैं अनुशासन को खूंटी पर टाँगना इन्हें भाता है . भूल ये है कि घर का पाठशाला समुचित पाठ देने में अक्षम होता जा रहा है .क्या करियेगा ?

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 27, 2013 at 3:23pm

कहानी घर- घर की !!कमी कहाँ है हमारे दिए संस्कारों में या पश्चिमी सभ्यता की नक़ल खोरी में ,या स्वावलंबन के मद में इस चैप्टर को सच में समझना नामुमकिन है ,बहुत बढ़िया मानसिक द्वन्द  को जगाती लघु कथा हेतु आपको बधाई अन्नपूर्णा जी 

Comment by annapurna bajpai on August 27, 2013 at 10:24am

आदरणया वंदना जी आपका कथन सत्य है ।

Comment by annapurna bajpai on August 27, 2013 at 10:23am

आदरणीय श्याम जी यदि सबक ले ले तो समस्या ही नहीं होगी ।

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