!!! प्याज मंहगे आ गए !!!
बह्र- 2122 2122 2122 212
पत्थरों के शहर में ये जीव कैसे आ गए।
लोभ है सत्ता से इनको होड़ करके आ गए।।1
श्वेत पोशाकों में सजते, खून से लथपथ सने।
रोज मरते सत से राही, कंस जब से आ गए।।2
धर्म बीथीं भी हिली है, भू कपाती हलचलें।
भाई से भाई लड़े हैं, जाति जनने आ गए।।3
नफरतों की आग फैली, द्वेष फलते पीढि़यां।
अम्न जिंदा जल रही है, घी गिराने आ गए।।4
वक्त ने हमको पढ़ाया, सब्र में बलराम है।
फिर हमें क्यों वोट छलते, राज करने आ गए।।5
पाठशाला के नेवाले छीनते हैं वारिसे।
संसदों के राजदारी जुर्म ढकने आ गए।।6
हम समन्दर के निवासी, छुद्र नदिया छेड़ती।
ताल-नाले रोज अकड़े, आंख ताने आ गए।।7
व्यभिचारी बढ़ रहे हैं, भ्रूण हत्या क्यों रूके?
दंभ-लोभी बेटियों को फिर जलाने आ गए।।8
जिन्दगी की डोर छोटी, राजनीतिक लास्टिक।
फिर से नेता द्रौपदी की, चीर हरने आ गए।।9
कब कहा था आस्मां के रेट नीचे लाऊंगा।
लो गिरे रूपया यहां पर, प्याज मंहगे आ गए।।10
चापलूसों की कहानी, ओट से यह कह रही।
अब हलाली खूब होगी, यम बचाने आ गए।।11
के0पी0सत्यम/मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आ0 शिज्जू भाई जी, आपके स्नेह और उत्साहवर्धन हेतु आपका तहेदिल शुक्रिया सहित बहुत बहुत आभार। सादर,
आ0 भण्डारी भाई जी, आपके स्नेह और उत्साहवर्धन हेतु आपका तहेदिल बहुत बहुत आभार। सादर,
आदरणीय केवल भाई जी वाह बेहद सुन्दर अशआर हुए हैं लाजवाब ग़ज़ल कही है ढेरों बधाई स्वीकारें.
नफरतों की आग फैली, द्वेष फलते पीढि़यां।
अम्न जिंदा जल रही है, घी गिराने आ गए ... इस शेर हेतु विशेष तौर पर बधाई स्वीकारें.
कब कहा था आस्मां के रेट नीचे लाऊंगा।
लो गिरे रूपया यहां पर, प्याज मंहगे आ गए .. भाई जी यह शेर कुछ अटपटा सा लग रहा है, लो गिरे के साथ रुपया सटीक नहीं बैठ रहा है.
व्यभिचारी बढ़ रहे हैं, भ्रूण हत्या क्यों रूके?
दंभ-लोभी बेटियों को फिर जलाने आ गए।। भाई जी इस शेर में तकाबुले रदीफ़ का दोष प्रतीत हो रहा है कृपया पुनः देख लें.
सार्थक, समसामयिक पोस्ट पर बधाई.
आदरणीय केवल प्रसाद जी अब तक मैने आपके छन्द देखे थे ग़ज़ल भी आप बहुत अच्छी कहते हैं इस रचना के लिए दिली दाद क़ुबूल करें
केवल भाई बधाई , बहुत अच्छी गज़ल कही , वर्तमान की सभी समस्याये सामने आ गई !!
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