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लघु कथा : ब्रह्मराक्षस का कुत्ता

महानगर के सबसे शानदार इलाके की सबसे अच्छी कोठियों में से एक में ब्रह्मराक्षस रहता है। वो स्वयं को दुनिया का सबसे बड़ा विद्वान समझता है और चाहता है कि उसकी विद्वत्ता के चर्चे चारों दिशाओं में हों। समय समय पर ज्ञान के प्यासे लोग उसके पास आते रहते हैं। वो फौरन उनको अपना शिष्य बना लेता है। फिर उनके कानों में फुसफुसाकर गुरुमंत्र देता है। जैसे ही शिष्य इस गुरुमंत्र का उच्चारण करता है वो कुत्ता बन जाता है। इसके बाद ब्रह्मराक्षस अपनी तमाम पोथियाँ उसके सामने बाँचता है। तत्पश्चात ब्रह्मराक्षस उसके गले में अपने नाम का पट्टा डालकर कहता है कि जाओ इस ज्ञान को दुनिया भर में फैला दो।

कुत्ता सब के घरों के सामने जा जाकर वो सारा ज्ञान उगलने की कोशिश करता है जो उसे ब्रह्मराक्षस से हासिल हुआ था पर उसके मुँह से केवल केवल भौं भौं की आवाज ही निकलती है। दो चार घरों के सामने भौंकने के पश्चात उसे ये मालूम पड़ जाता है कि अब वो ब्रह्मराक्षस के अलावा किसी और की भाषा समझ ही नहीं पाता। इस सबके परिणामस्वरूप लोग उसे विद्वान समझने के बजाय किसी के घर से भागा हुआ पालतू कुत्ता समझते हैं और दरवाजे से ही बाहर निकाल देते हैं। कुछ एक घरों में उसने जबरन घुसने की कोशिश की मगर वहाँ से उसे डंडा मारकर बाहर निकाला गया।

बेचारा थका हारा कुत्ता एक दिन वापस ब्रह्मराक्षस की कोठी पर आता है। ब्रह्मराक्षस ये समझ नहीं पाता कि जो कुत्ता उसकी भाषा इतनी आसानी से समझ लेता है और उसकी तारीफ में दुनिया के तमाम शब्दों का एकदम शुद्ध उच्चारण करता है वो बाहर जाकर आम आदमी को न कुछ समझा पाता है न ही आम आदमी की कोई बात समझ पाता है। आखिर क्यों?

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(स्वरचित एवं अप्रकाशित)

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Comment by Saurabh Pandey on April 24, 2013 at 5:14pm

क्षेत्र कोई हो संप्रेषणीयता आवश्यक है. इस हेतु संयत वैचारिक प्रवाह को उपयुक्त शब्द देना होता है. इसी पवित्रतम पक्रिया से किसी नाजायज़ बाइ-प्रोडक्ट की तरह मठाधीशी पैदा होती है जिसकी आपने इंगितों से क्या खूब खबर ली है, आदरणीय धर्मेन्द्र भाई.

अन्य क्षेत्र इस मठाधीशी के खिलाफ़ चाहे जैसे लड़ें-भिड़ें, काश साहित्य के आँगन में ऐसे उग आये खर-पतवार सदृश ब्रह्मराक्षस कितनी घिनौनी विसंगतियों को जन्म देते हैं यह आप ही नहीं बल्कि सभी संवेदनशील मनस इससे परिचित है. काश इसमें प्रबुद्ध रचनाकारों का भी सार्थक योगदान होता ताकि नव-हस्ताक्षर ’कुत्ता’ बनने से बच पाते.

ओबीओ की कोशिश आपकी कहानी के बरअक्स और पूजनीय लगने लगी है.

प्रासंगिक बिम्ब के अद्भुत प्रयोग से पगी इस अद्भुत लघुकथा हेतु आपको बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ.

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 24, 2013 at 9:54am

आ0  धमेंद्र जी,  ज्ञान के साथ ही विवेक अर्थात सद्गुरू का मनन परमावश्यक है।  इसके बिना मात्र ज्ञान अहंकार का अंध कूप ही है। विवेक मंथन को दिशा देती रचना।  बधाई स्वीकारे।  सादर,

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