बिंदु में लंबाई, चौड़ाई और मोटाई नहीं होती
बना दो इससे गदा को गंदा, चपत को चंपत, जग को जंग, दगा को दंगा
मद को मंद, मदिर को मंदिर, रज को रंज, वश को वंश, बजर को बंजर
कोई सवाल करे तो कह देना
ये बिंदु नहीं हैं
ये तो डॉट हैं जो हाथ हिलने से गलत जगह लग गए
केवल लंबाई होती है रेखा में
चौड़ाई और मोटाई नहीं होती
खींच दो गरीबी रेखा जहाँ तुम्हारी मर्जी हो
कोई उँगली उठाये तो कह देना ये गरीबी रेखा नहीं है
ये तो डैश है जो थोड़ा लंबा हो गया है
शब्दों और परिभाषाओं से अच्छी तरह खेलना आता है तुम्हें
तभी तो पहुँच पाये हो तुम देश के सर्वोच्च पदों पर
मगर कब तक छुपाओगे अपने कुकर्म परिभाषाओं के पीछे
एक न एक दिन तो जनता समझ ही जाएगी
कि कुछ भी बदलने के लिए सबसे पहले जरूरी है परिभाषाएँ बदलना
तब जब ये आयातित डाट और डैश जैसे चिह्न हम निकाल फेंकेंगे अपनी भाषा से
तब जब बिंदु होगा लेखनी से न्यूनतम संभव लंबाई, चौड़ाई और मोटाई वाला
रेखा होगी न्यूनतम संभव चौड़ाई और मोटाई वाली
तब कहाँ छुपोगे ओ परिभाषाओं के पीछे छुपकर बैठने वालों
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
धर्मेन्द्र जी गणित और विज्ञान के तकनीकी शब्दों को आपकी रचनाओं में अक्सर प्रयोग होते देखती हूँ जो नव प्रयोग से रचना में रोचकता भर देते हैं तथा लीक से हट कर लगती हैं ये द्वी अर्थी शब्द और चिन्ह जनता को या (ओफ्फिस में बॉस को हाहाहा )अधिक दिनों तक बेवकूफ नहीं बना पाते उसी तरह ये सत्ता के ठेकेदार अधिक दिनों तक जनता को नहीं छल सकते एक सार्थक मर्म के इर्द गिर्द शब्दों का ताना - बाना बहुत अच्छा लगा बधाई आपको
मगर कब तक छुपाओगे अपने कुकर्म परिभाषाओं के पीछे
एक न एक दिन तो जनता समझ ही जाएगी
कि कुछ भी बदलने के लिए सबसे पहले जरूरी है परिभाषाएँ बदलना.............वाह! बहुत खूब!
आदरणीय धर्मेन्द्र जी सादर, बहुत ही सुन्दर बात कही है. वाह! बहुत बहुत बधाई स्वीकारें.
आदरणीय मेरी बधाई स्वीकारें। जिन बिम्बों का आपने प्रयोग किया है वे अनोखे हैं और उनकी परिभाषायें भी अनोखी।
आपका सादर आभारभाईजी, कि आपने मेरी बातों का अपनी विशाल हृदयता से अनुमोदित कर रचना-वाचन के क्रम में बन रहे मेरे आत्मविश्वास को सार्थक संबल दिया है. हम तो आपकी रचनाओं के साथ-साथ आपकी अत्यंत प्रखर और उच्च रचनाधर्मिता के मुखर प्रशंसक हैं.
सादर
आदरणीय Saurabh जी, आप से पूर्णयता सहमत हूँ कारण यह कि यह रचना एक ही दिन में लिखी और अगले ही दिन पोस्ट कर दी। यानी कि पोस्ट करने की जल्दी में रचना को पकने का समय नहीं दिया। आपकी बेबाक राय के लिए आभारी हूँ। स्नेह बना रहे।
आदरणीय by यशोदा जी, राज बुन्दॆली जी, PRADEEP जी, seemal जी, Laxman Prasad जी रचना को समय एवं समर्थन देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
वाह !बिंदु को डाट और रेखा को डैश से परिभाषे बदलने के नवीन प्रयोग बताने हेतु बधाई श्री धर्मेन्द्र कुमार सिंह जी बधाई
सही कहा है विद्वजन ने
डाट डैश तो आयातित है
अपनाते इनको जो
शोर्ट कट मारा करते
हम तो लखते पूर्ण विराम
डाट नहीं हमारी संस्कृति |
स्वदेशी छोड़ कर लोग
आयातित अपनाते जो
उनमे देखते है हम -
कही कुछ विकृति |
कोई सवाल करे तो कह देना
ये बिंदु नहीं हैं
ये तो डॉट हैं जो हाथ हिलने से गलत जगह लग गए
कोई उँगली उठाये तो कह देना ये गरीबी रेखा नहीं है
ये तो डैश है जो थोड़ा लंबा हो गया है......बहुत खूब धर्मेन्द्र जी नवीन प्रयोग
सादर , आपको ,आपकी रचना को नमन .
पर ये कब होगा, कैसे होगा. क्या ये होगा भी
आदरणीय जी
मानवीय भावनाओं की अभिव्यक्ति के क्रम में गणीत या विज्ञान की शब्दावलियों का आप अक्सर प्रयोग करते रहते हैं. ऐसा अभिनव प्रयोग कम ही रचनाकार कर पाते हैं. आपका संप्रेषण विन्दुवत तो होता है. लेकिन उसके गिर्द जो वृत होता है उसकी परिधि का विस्तार अत्यंत विस्तृत होता है.
इस रचना में विन्दु और रेखाओं के प्रतीक के माध्यम से आम जन की सामयिक हताशा को बढिया स्वर मिला है. हताशे की सामयिकता कितना सर्वग्राही हो सकती है इसका सम्यक प्रस्तुतिकरण हुआ है.
किन्तु, प्रस्तुत कविता में शाब्दिकता रचना की गहनता को कम करती दिख रही है. यों, ऐसा आपकी रचनाओं में कम ही होता है कि बिम्बों के आस-पास के शब्द अपने भावजन्य पर्याय को साथ जीयें. लेकिन, आदरणीय, इस बार हुआ है.
बहरहाल, रचना प्रस्तुति हेतु सादर धन्यवाद और हार्दिक शुभकामनाएँ.
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