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               रक्तधार

विगत संबंधों से स्पंदन करती   

पुरानी रक्तधार

सूखी नदी-सी सूख चुकी है,

पर मात्र स्मृति किसी एक संबंध की

जैसे नदी के सूखे तल को

आ कर ज्वार-भाटा-सी भिगो देती है।

विसंगत प्रसंगों में समन्वय ढूँढते

कितने वियोगाँत दृश्य

दुहरा जाते हैं विप्लव-से झट से

                     मेरी आहत आँखों में ...

              

आज मैंने डाल पर देखा

कोई उदास आँखों वाला

ठिठुरता रक्ताक्त पक्षी,

आशंकित,

झिझक रहा था लौट आने को डाल पर,

और फिर जा बैठा वह उसी डाल पर

क्षत-विक्षत हुआ था

               जिस डाल पर वह बार-बार।

... और मुझको लगा

           उस पक्षी का नाम ‘विजय’ था।

                           ---------

                                                    -- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Vindu Babu on February 24, 2014 at 9:03am

आह!

क्या बात है आदरणीय!

अंतिम बंद ने उत्कृष्टता के चरम ने छू लिया...ऐसा मुझे लगा।

आपको भुत बधाई इस गहन और गम्भीर अभिव्यक्ति के लिए।

रचना बहुत प्रभावी लगी आदरणीय।

सादर

Comment by vijay nikore on February 24, 2014 at 7:42am

// ऐसी रचना के साथ साथ बहा तो जा सकता है मगर कोई प्रतिक्रिया करना आसान नहीं है. ऐसी सारगर्भित प्रस्तुति पर हार्दिक नमन//

आपके यह शब्द पढ़कर जो भीगी भावनाएँ उमड़ आईं, उन्हें मैं कैसे कहूँ, शब्द नहीं हैं मेरे पास, आदरणीय भाई योगराज जी। कृपया स्नेह देते रहें।


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on January 15, 2014 at 1:15pm

ऐसी रचना के साथ साथ बहा तो जा सकता है मगर कोई प्रतिक्रिया करना आसान नहीं है. ऐसी सारगर्भित प्रस्तुति पर हार्दिक नमन स्वीकारें।

Comment by vijay nikore on March 7, 2013 at 3:18pm

आदरणीय प्रदीप जी:

 

इस उदात्त सराहना के किए आपका कोटि-कोटि आभार।

आशा है आपका स्नेह मिलता रहेगा।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 7, 2013 at 3:10pm

आज मैंने डाल पर देखा

कोई उदास आँखों वाला

ठिठुरता रक्ताक्त पक्षी,

आशंकित,

झिझक रहा था लौट आने को डाल पर,

और फिर जा बैठा वह उसी डाल पर

क्षत-विक्षत हुआ था

               जिस डाल पर वह बार-बार।

आदरणीय सर जी 

सादर 

बार बार पढ़ रहा हूँ 

डूब और उतरा रहा हूँ 

क्या लिखूं क्या न लिखूं 

समझ नहीं पा रहा हूँ. 

बधाई, आशीर्वाद दीजिए. 

.

Comment by vijay nikore on February 21, 2013 at 10:04am

आदरणीया सीमा जी:

 

सीमा जी, आपके इतने अच्छे शब्द पढ़ कर

मैं भी अब असमंजस में हूँ कि मैं पर्याप्त

आभार कैसे अभिव्यक्त करूँ .... कि आपने

कितना प्रोत्साहन दिया है!

 

आपका शत-शत धन्यवाद।

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on February 21, 2013 at 9:54am

आदरणीय अजय जी:

 

आपको मेरी कविता अच्छी लगी,

यह मेरा सौभाग्य है ...

आपका हार्दिक आभार।

 

सादर,

विजय निकोर

 

Comment by seema agrawal on February 20, 2013 at 9:49pm

असमंजस में हूँ आदरणीय विजय जी कि क्या कहूं 

विसंगत प्रसंगों में समन्वय ढूँढते
कितने वियोगाँत दृश्य
दुहरा जाते हैं विप्लव-से झट से
मेरी आहत आँखों में ...
अन्दर तक झिंझोड़ दे रही हैं ये पंक्तियाँ ...

और फिर जा बैठा वह उसी डाल पर
क्षत-विक्षत हुआ था
जिस डाल पर वह बार-बार।........

क्या कोई प्रतिक्रिया हो सकती है इस स्थिति  में 

बस दो पंक्तियाँ  जो दिल से निकली थीं कभी किसी के लिए आपको भी समर्पित करती हूँ

मानती हूँ है धरातल सख्त पर चलना ही है 
भोर होने तक दिए को राह पर जलना ही है .....हार्दिक शुभकामनाएं .......

Comment by vijay nikore on February 20, 2013 at 9:38pm

आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी:

 

मैं अभिभूत हूँ कि मेरे अनुभवों का

पाठकों के संग यूँ स्पंदन हुआ..

किसी भी कवि के लिए इससे बढ़ कर

प्रोत्साहन क्या हो सकता है!

आपका शत-शत आभार।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on February 20, 2013 at 9:29pm

आदरणीया प्राची जी:

 

सदैव समान मैंने कविता में शब्दों को

भावनाओं की सच्चाई का लिबास पहनाया,

पर मैंने नहीं सोचा था कि मित्रगण इस लिबास

के रंगों को इस कदर छू कर देखेंगे, भावनाओं को

इतना पास से अनुभव करेंगे।

 

अनुभवों की सच्चाई को छूने के लिए

आपका अतिशय धन्यवाद।

 

सादर,

विजय निकोर

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