हम ढोते हैं अपनी विरासत को
सभ्यता को
संस्कृति को
शाश्वत दर्शन को
बिना जाने
बिना समझे
जीवन में उतारे बिना
हम पूजते हैं
अपने मूल्यों को
बिना समझे
बिना जाने
भटकते हैं
रौशनी के काफिले
हमें गर्व है
अपनी थाती पर
वेदों पर
पुराणों पर
मोहनजोदड़ो, हड़प्पा
के अवशेषों पर
कटकर
अपनी जड़ों से-
कैसा
माटी का गुणगान ?
अध्यात्म की वृहद चर्चाओं में
कथित 'बाबाओं' की सभाओं में
खेली- खाई 'नैतिकता'
के छलावों में
हम ढोते
हैं आत्मा का बोझ
यह कैसा
राष्ट्रीय चरित्र?
कि हम ढोते हैं ...
महज ढोते ही हैं -
अपनी विरासत को !!!
Comment
धन्यवाद भ्रमर जी, विचारशील प्रतिक्रिया एवं सराहना के लिए.
आदरणीया विनीता जी सुंदर रचना हमारी संस्कृति संस्कार नैतिकता बनी रहे तो आनंद और आए
भ्रमर ५
बहुत बहुत धन्यवाद आ. अशोक जी.
लकीर का फ़कीर ना बनाने की नसीहत देती सुन्दर रचना पर बधाई स्वीकारें आदरेया विनीता जी सादर.
समर्थन एवं सराहना हेतु, कोटिशः धन्यवाद अरुण जी.
ये रचना तो आइना लेकर खड़ी है ! वाणी और चरित्र के अंतर को प्रभावशाली तरीके से चित्रित करती रचना ! सन्देश देती हुई कि या तो अपनी आत्मा को सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें या बंद करें व्यर्थ का प्रलाप ! सादर !
अनेकानेक धन्यवाद डॉ. अजय खरे जी.
हार्दिक धन्यवाद राजेश कुमारी जी, इस विचारशील, उत्साहवर्धन करने वाली प्रतिक्रिया के लिए.
bahut sunder rachna ke liye badhai
जी हाँ आज की पीढ़ी को देखकर तो यही लग रहा है कि ये मान्य्तायेन ये संस्कृति ढो ही रहे हैं अब हमारा ही मौलिक धर्म कर्तव्य बनता है कि इस धरोहर का पूर्ण ज्ञान वितरित किया जाए घरों से ही ये संस्कार बच्चों में डाले जाएँ सच में आज कि परिथितियो को देखकर मन में ये प्रश्न उपजना स्वाभाविक है बहुत अच्छा लिखा बधाई आपको
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