आज मुहल्लेवालों ने राष्ट्रीय युवा दिवस मनाने के लिये एक कार्यक्रम का आयोजन किया था. लाला भाई के प्रयास से ही आज का आयोजन सम्भव हो पाया था इसलिये वे बहुत ही प्रसन्न दिख रहे थे. कार्यकारिणी के सभी सदस्यों के अनुरोध पर कार्यक्रम के मुख्य वक्ता लाला भाई को ही बनाया गया था.
इस वर्ष ठंढ ने न्यूनतम होने के कई सारे रिकार्ड तोड दिये थे. मैं भी शरीर पर कई तह में कपडे तथा सिर पर कनटोप और मफ़लर के साथ जमा था. कडाके की ठंढ आदमी को प्याज के छिलकों की तरह वस्त्र पहनने को विवश कर देती है. तीन-चार दिनों के बाद ही सही नहाने के लिये आदमी पहने हुए कपड़ों को उतारता है तो एक-एक कर प्याज के छिलकों की तरह ही उसे उतारता जाता है. और गोया पहने हुए वस्त्रों को उतारने में ही एकबारगी थक-सा जाता है. खैर. कार्यक्रम युवाओं का था. सो, उपस्थित सारे युवा इधर-उधर फ़ुदक रहे थे. इतने-इतने कपडों में लदे-फ़दे गोलू-मोलू बदन के साथ चलने-फ़िरने को फ़ुदकना ही कहेंगे ना !
नये साल के पहले कार्यक्रम के लिये बुलाया तो सभी को गया था लेकिन ऐसी ठंढ में घर छोडना सभी के लिये आसान नहीं होता. तो उपस्थिति भी उसी हिसाब से थी. इस बात से लाला भाई थोडे खिन्न भी थे. लेकिन तुरत ही उन्होने कार्यक्रम की रूपरेखा में परिवर्तन करते हुये इसे केवल भाषणबाजी से भिन्न एक सार्वजनिक बैठक का रूप दे दिया. यानि, मौज़ूद सारे युवाओं को कार्यक्रम का हिस्सा बनाने का निर्णय कर लिया गया कि सबकी सहभागिता होगी. अब उपस्थित सारे युवा दिये गये विन्दुओं के अनुसार अपनी-अपनी बात कहेंगे. लाला भाई ने विषय भी दे दिया ताकि प्रदत्त विचार एक बिन्दु पर ही केन्द्रित रहें. उपस्थित सारे लोगों से आज का दिवस यानि राष्ट्रीय युवा दिवस मनाये जाने का कारण, स्वामी विवेकानन्द जी का जीवन परिचय तथा साथ ही साथ अपने आदर्श व्यक्ति का नाम भी बताने को कहा गया था. आदर्श व्यक्ति यानि ऎसा व्यक्तित्व जिसकी तरह वो बनना चाहते हैं. लाला भाई ने सोचा, चलो इसी में आज के युवाओं का मन भी टटोल लिया जाये. उनकी इस तुरत-फ़ुरत घोषणा से मौज़ूद आधे युवा जो किसी तरह कुर्सी पर लदे-फ़दे जमे थे वहाँ से निकल लेने का ढंग ढूँढने लगे. अचानक ही एक-दो सज्जनों को मोबाइल पर काल आ गया. बात करने के बहाने वे वहाँ से निकल लिये. उनके जाते ही एक-दो युवा उनको खोजने के लिये बाहर निकल लिये. कुछ देर के बाद ये पता चल गया कि बात करने वाले और उनको खोजने वाले सभी सज्जन वहां से कलटी मार चुके हैं यानि पलायन कर चुके हैं. अब जो बचे थे वो एक-दूसरे का मुँह देख कर आगे की रणनीति बनाने लगे.
स्वामी जी के चित्र पर माल्यार्पण आदि से कार्यक्रम प्रारंभ हुआ. कार्यक्रम की रुप-रेखा बदलने से वरिष्ठ वक्ताओं को बाद में बोलने का क्रम दिया गया. लाला भाई भी उनमें से नयी प्रतिभा को खोजना चाहते थे.
पहला वक्ता जो बिल्कुल आराम से कार्यक्रम का मजा लेने आया था और अचानक ही कार्यक्रम की रुपरेखा में आ गया था. उसने एक नजर स्वामी विवेकानद के चित्र पर डाला और उनके सन्यासी रूप को देखते हुये तुरत ही अपने भाषण का प्लाट तैयार कर लिया. उसने स्वामी जी को सच्चाई पर चलने वाला, अत्याचार न करने वाला और एक अहिंसक बाबा बताया. फ़िर तो बाकि बचे वक्ताओं को भी धीरे-धीरे जोश आने लगा. उनमें से एक स्वामी जी के बारे में य भी जानता था कि वो स्वतंत्रता आन्दोलन के आस पास के थे तो उसने उनको स्वाधीनता आन्दोलन का एक जागरुक सिपाही बना दिया. लेकिन उसके बाद उसकी जानकारी खत्म हो गयी थी, इसी से आगे का भाषण उसने पहले वाले का बोलने के क्रम में ही कापी-पेस्ट कर डाला. उसके बाद तो सभी ने बिना ज्यादा सोच विचार के पूर्ववक्ताओं की बातों को थोडा अदल-बदल कर कहना शुरु कर दिया.
उसी में एक युवा जो दिखने से ही कुछ अधिक ही आधुनिक लग रहा था, उसने स्वामी जी के साथ-साथ वहां बैठे हुए सारे लोगों पर पुरातनपंथी होने का आरोप लगाते हुये आधी इंगलिश और आधी हिन्दी में गरजना शुरु कर दिया. उसके अनुसार आज की युवा पीढ़ी को इन सा्धु-संन्यासियों, बाबाओं-स्वामियों के झमेले में डाल कर आयोजनकर्ता क्या कहना और करना चाह रहे हैं !? इस पीढ़ी को उसके अनुसार इन निठल्ले बाबाओं से बच कर रहना चाहिये, कि, ऐसे साधु-संन्यासी एक भ्रमजाल फ़ैला कर सारे समाज को मानसिक गुलाम बनाते हैं. उसने आज के कुम्भ आदि का हवाला देते हुये ऐसे बाबाओं की ऐसी-तैसी कर दी. फिर तो इन-उन बाबाओं के साथ-साथ बेचारे स्वामी जी भी घुन की तरह पिस गये, जिन्होने ऐसे पोंगापंथियों का आजीवन विरोध किया था. अब तो वक्ताओं की वाचालता से धीरे-धीरे विवेकानन्द का वो रुप उभर कर आने लगा जिसके बारे में लाला भाई क्या स्वामी जी खुद भी पूरी तरह से अन्जान होते ! लालाभाई की मुख-भंगिमा दख कर तो एकबारगी लगा कि मामला गया हाथ से. खैर...
भाषण में एक बात जो अधिकांश ने कही, वो ये कि हमें उनके बताये रास्ते पर चलना चाहिये. लेकिन वो रास्ता क्या था इसका पता अभी तक सामने नहीं आया पाया था. यह सब सुन कर जानने-समझने वाले क्या करते, बस सिर पीट रहे थे.
ये तो केवल एक भाग था युवाओं के विचार का, दूसरा भाग तो बचा हुआ था-- अपने-अपने आदर्श व्यक्ति के बारे में बताने का. जिसके अनुसार वो भविष्य में वैसा ही बनने की कल्पना करते हैं. शुरुआत क्रिकेटरों से हुई जिन्होंने खेल के साथ-साथ कई वस्तुओं के विज्ञापनों-फ़िल्मों से ढेर सारा पैसा बनाया हुआ है. फ़िर आये फ़िल्म अभिनेता, जिनका पात्र के अनुसार अदायगी करने के अलावे अपना कुछ होता ही नहीं. किसी और के लिखे गये डायलोगों को किसी और के बताये डायरेक्सन और स्टाइल में कह भर देना होता है. न उनका अपना चरित्र, न ही कोई आदर्श. फ़िर भी वे कई युवाओं के आदर्श हुआ करते हैं ! उसके बाद आये राजनेता. उनके बारे में जो न कहा जाये वही कम. इन आदर्शों से एक बात जो निकली, वो ये कि आज का युवा उसे पसंद करता है जो येन-केन-प्रकारेण पैसा बनाते हों, जिनके बडे-बडे पोस्टर लगे हुए होते हों, बात-बेबात छपते हों, बड़ी-बड़ी गाडियों में घूमते हों और अपने साथ सुरक्षा के नाम पर कई लाइसेंसी असलहाधारी रखते हों. आभासी युग में युवा आभासी दुनिया का जीवन जीने लगे हैं. आदर्श का वास्तविक अर्थ ही भूल गये हैं.
लाला भाई ने अपने समय से आज के समय तक में आये परिवर्तन को बखूबी महसूस किया. ऐसा परिवर्तन अच्छा है या बुरा यह एक विवेचना का प्रश्न है.
अबतक आज के युवाओं के विचार सामने आ चुके थे. लाला भाई के चेहरे पर परेशानी साफ़ देखी जा सकती थी. उन्होने ने बगल में बैठे तिवारी जी से कहा, "भाईजी, मन बहुत खिन्न और बोझिल हो गया है.." उनके साथ-साथ तिवारी जी भी परेशानी में सिर हिलाने लगे. लेकिन उनकी परेशानी का सबब ही अलग था. वो लाला भाई को ऎसे देखने लगे मानों कह रहे हों कि कहाँ फ़सा दिया भाषणबाजी के चक्कर में ! जल्दी से ये सब समाप्त हो. नहीं तो बचे-खुचे श्रोता-दर्शक भी चले जायेंगे.
हुआ ये था कि इसी कार्यक्रम के साथ युवा दिवस पर एक सांस्कॄतिक कार्यक्रम की भी तैयारी की गयी थी. जिसमें तिवारीजी के घर के बच्चों ने बडी मेहनत से दबंग-2 के ’फ़ेविकोल’ वाले गाने पर डाँस तैयार किया था. अगर सब बोर हो कर चले गये तो फ़िर उनके उस ऊर्जस्वी डांस का क्या होगा ? आखिर युवाओं के कार्यक्रम में मौज-मस्ती धूम-धड़ाका न हुआ तो क्या हुआ ??....
--शुभ्रांशु
Comment
आ.प्राची जी.
व्यंग्य लेख अपने विचार प्रस्तुत करने के लिये धन्यवाद.
आज के युवाओं को ही इस परिस्थिति के लिये सारा दोष देना सही नहीं है. उन्हें जो सिखाया गया है वे उसी का अनुसरण कर रहे हैं. अब रोपा पेड़ बबूल का आम कहाँ से होये. सफ़लता का पैमाना जब से धन या पैसे को किया गया है या बताया गया है, युवा अपने को इसी डोलड्रम में पा रहे हैं. इसी से नैतिकता इमानदारी चारित्रिक गुण, किताबों की बातें हो कर रह गयी हैं. हमें आज भी याद है कि आज से कुछ वर्ष पहले तक एक बच्चे का ये कहना कि " पापा कह रहे है कि पापा घर में नहीं हैं" मजाक माना जाता था. आज के बच्चों को झूठ बोलना बताना नहीं पडता है, यह एक स्वाभाविक गुण बनता जा रहा है.
कारण हम जानते हैं, हल हमें ही निकालना है.....
सादर
आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले जी व्यंग्य की धारा के साथ बहने के लिये धन्यवाद
सादर
बहुत सार्थक व्यंग आलेख लिखा है आदरणीय शुभ्रांशु जी,
वास्तविकता पर भारी आधुनिकता की व्यंग के माध्यम से आपने बहुत सुन्दर प्रस्तुति दी है. बधाई स्वीकारे आद. शुभ्रांशु जी.
बहुत कुछ साझा हुआ है. विश्वास है, व्यंग्य की धार में बहुअत् कुछ समाहित हो कर सामने आये.
शुभेच्छाएँ
आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद जी,
व्यंग्य के साथ स्वयं के अनुभव को साझा करने के लिये धन्यवाद, किसी भी लेख के लिये पाठक का वास्तविक रुप से जुडना लेखक को एक आत्मीय संतोष प्रदान करता है. एक बार फ़िर से धन्यवाद.
स्वामी जी के प्रादुर्भाव को केवल रामकृष्ण मिशन तक ही नहीं रखा जा सकता है. सच तो ये है कि भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में जो गति या आन्दोलनकारियों में जो आत्मविश्वास आया था वो उनके अमेरिका प्रवास और उनके प्रसिद्ध भाषण के बाद ही आया था. कन्याकुमारी की शिला पर बैठ कर भारत के भूत, वर्तमान और भविष्य पर ध्यान लगाने वाल संत वो ही थे. और भारत देश की दशा पर इतना सोचने वाले ऐसे संत उस समय एक मात्र संत वो ही थे. हिन्दुस्तान को पूरी तरह समझने के लिये सर्वप्रथम उसका परिभ्रमण करना आवश्यक है. ये परिभ्रमण चार मठों को स्थापित करने के पहले आदि शंकराचार्य ने किया था, फिर विवेकानन्द ने किया और आगे इसी काम को अफ़्रीका से लौट कर गोखले की सलाह पर गांधी जी ने भी किया था. ऎसे व्यक्ति के बारे में समाज को जानकारी न देना इतिहास के साथ खिलवाड है.
ये व्यंग्य इसी तरह के किसी समारोह का ही किस्सा है...
सादर
आदरणीय प्रदीप कुमार जी. सराहना हेतु धन्यवाद
सादर
आपने इस हास्य कथा पर विन्दुवार विश्लेषण कर आज के युवाओं की मानसिकता तथा उनके दिग्भ्रमित होने के कारणों की वृहद व्याख्या कर दी है. आज की पीढी को जिस तरह से अपनी जडों से आधुनिकता के नाम पर काटा जा रहा है, यह किसी से छुपा नहीं है. जिस विवेकानन्द जी के जन्म दिवस को भारत सरकार ने राष्ट्रीय युवा दिवस घोषित किया है उन स्वामीजी के बारे में बच्चों को इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में भी कायदे से पढाया नहीं जाता.
जिस इतिहास को अमेरिका ने कभी अपने म्यूजियमों में डाल रखा था, आज वह पुनः उसे सबके सामने लाने की कोशिश कर रहा है. ब्रिटेन अपने इतिहास को सजो कर रखता है. चीन अपने को कम्युनिस्ट देश कहता है लेकिन नया बनने के क्रम में, इतिहास के साथ खिलवाड उसने भी नहीं किया. लेकिन आज हम भारतीय आधुनिक और शिक्षित होने के बाद सबसे पहले अपने आप को भारतीयपन से ही अलग करने की कोशिश करने लगते हैं. इस तरह के आधुनिक और शिक्षित लोगों ने अपने अनुसार एक पीढी भी तैयार कर ली है जो हर जगह, भारतीयता के खिलाफ़ किसी भी मंच पर, किसी मंच से, माफ़ करियेगा, सियार की तरह हुआँ-हुआँ करती फिरती है.
फ़्राँस के इतिहासकार और भारतीय दर्शन के उद्भट्ट विद्वान मिशेल डिनेनो ने कहा भी है कि सारे विश्व में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहाँ के लोगों का अपना इतना समृद्ध इतिहास होने के बावज़ूद उन्हें अपने पूर्वजों पर शर्म आती है. आप तो इन डिनेनो साहब से अपने चेन्नै प्रवास के समय से व्यक्तिगत रूप से परिचित हैं.
मुझे आज भी याद है कौन बनेगा करोड़पति के निर्माता सिद्धार्थ बसु बहुत पहले दूरदर्शन पर एंकर के रूप में क्विज टाइम नाम का एक कार्यक्रम ले कर आया करते थे. कई बार ऐसा देखा जाता था कि उसके प्रतिभागी भारतीय इतिहास से संबंधित छोटे-छोटे सवालों पर अँटक जाया करते थे, जबकि उन्हीं प्रतिभागियों को ब्रिटेन की सडकों, यहाँ तककि गलियों और नुक्कडो के नाम पता होते थे. आज के इस आधुनिक इण्डिया की तैयारी तो उसके भी बहुत पहले से हो रही है.
इस व्यंग्य के कथ्य की तल्खी को आपने जो एक विस्तार दिया है, उसके लिये सादर धन्यवाद.
सादर
आदरणीय गणेश भैया,
कथा के प्रसंग को अनुमोदन देने हेतु धन्यवाद.कथा पसंद आयी ये मेरे लिये संतोष का विषय है.
सादर
शुभ्रांशु पाण्डेय जी, आपकी कहानी ने मुझे मेरे युवा अवस्था की याद ताजा करदी । अग्रसेन युवा संगठन के महासचिव रहते मैंने कई बार युवा सम्मलेन,सेमिनार आयोजित किये । जब भी राजनैतिक नेता व् तथाकथित सामाजिक नेता आये तो सम्मलेन का ऐसा ही हाल होता जैसा आपने लिखा है, और भीड़ जुटाने के लिए साथ में सांस्क्रतिक कार्यक्रम रखते उसको शीघ्र प्रारम्भ करने का बेसब्री से इन्तजार करते बहुत से लोग चले जाते थे ।
श्रद्धेय विवेकानंद जी जो 39 वर्ष की अल्पायु में भारत को विश्व में सम्मान दिला गए, अपने गुरु स्वामी रामक्रष्ण परमहंस के नाम संस्था स्थापित कर राह बना गए, उनके विचारों का आज प्रचार प्रसार करने की आवश्कता है । कहानी सार्थक बन पड़ी है बधाई स्वीकारे
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