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रंगीन पन्ने (लघु कथा)// शुभ्रांशु पाण्डेय

"धत्त्तेरे की... क्या भर देते हैं ये न्यूजपेपरों के बीच में..", मैने एकबारग़ी झल्लाते हुये कहा.


कई रंग-बिरंगे पैम्फलेट मेरे अखबार से निकल कर सरसराते हुए जमीन पर गिरते गये. इन रंगीन पन्नों में बच्चे के प्रेप में एडमिशन से ले कर नये-नये खुले इन्जिनिरिंग कॉलेज में दाखिले तक के, साड़ी खरीदने से ले कर मकान खरीद लेने तक के, या और भी न जाने क्या-क्या उपलब्ध करा देने के दावे हुआ करते हैं.
महरी झाडू लगाते हुए उन रंगीन पन्नों को बुहार कर घर के बाहर पेड़ के पास फेंक आयी, कचड़ावाले को उठा ले जाने के लिए. 

पेड़ ने चुप-चाप एक नजर उन रंगीन पन्नों पर डाली. उसे कहीं दूर अपने भाई-बन्धुओं पर कुल्हाड़ों के चलने की आवाज सुनायी दे रही थी.. ठक् ठक् ठक्....... 
नम आँखें बद किये पेड़ देर तक सिहरता रहा.... 

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 21, 2017 at 9:44pm

पेड़ के दर्द को खूब उकेरा है आपने आदरणीय | बहुत बढ़िया कथा हुई है , हार्दिक बधाई आपको |

Comment by Shubhranshu Pandey on October 19, 2013 at 7:55pm

आदरणीय राजेश कुमारी जी, कथा के चरम् को पकड़ने और उसका विस्तार देने के लिये आभार. 

Comment by Shubhranshu Pandey on October 19, 2013 at 7:49pm

आदरणीय गणेश भैया, लघुकथा पर आपसे सकारात्मक प्रतिक्रिया पाने पर, सच कहूँ तो मन हर्षित है. आप लोगों को पढ़ कर समझ कर सीख कर ही पहली लघु कथा डालने का प्रयास किया है. जो अब आपके सामने है.

सादर. 

Comment by Shubhranshu Pandey on October 19, 2013 at 7:44pm

आदरणीय अजीत जी, रचना अच्छी लगी इसके लिये आभार. 

Comment by Shubhranshu Pandey on October 19, 2013 at 7:43pm

आदरणीया गीतिका जी, रचना पसंद आयी ये मेरे लिये उत्साह वर्धक है.

सादर.

Comment by Shubhranshu Pandey on October 19, 2013 at 7:40pm

आदरणीय कुन्ती जी, आपने इस कथा को जो विस्तार दिया है उसके लिये आभार. वृक्ष की सिहरन ने आपको दूर तक छुआ ये जान कर संतोष हुआ. 

जगदीश चन्द्र बसु जी ने केवल सजीव अचल में जीवन की बात की थी. लेकिन साहित्यकार तो जड़ चेतन सभी से भाव मनोभाव निकाल लेते हैं... हा...हा...हा...

Comment by Shubhranshu Pandey on October 19, 2013 at 7:07pm

आदरणीय बृजेश नीरज जी, आपने लघु कथा पर अपना समय दिया इसके लिये लिये आभार. वैसे इस मंच पर इस लघुकथा के पहले मैने कुछ हास्य वंग की रचनायें डाली हैं, शायद आपका ध्यान पाने में असफ़ल रहा जिसका मुझे अफ़सोस है. 

इस रचना पर अपनी प्रतिक्रिया देने के लिये एक बार फ़िर से आभार. 

Comment by Shubhranshu Pandey on October 19, 2013 at 7:01pm

आदरणीय सौरभ भैया,

पहली लघु कथा को डालने में डर लग रहा था. अभी तक लम्बी कथा या हास्य व्यंग लिखने में शब्दों पर इतनी राशनिंग नहीं होती थी. लेकिन आप लोगों के उत्साहवर्धन ने एक आत्म बल प्रदान किया है. लगता है आप सुधी जनों को संतुष्ट करने में सफ़लता पायी है. 

सादर.

 

Comment by Shubhranshu Pandey on October 19, 2013 at 6:49pm

आपके प्रोत्साहन से आत्मसंतुष्टि का अहसास होता है आदरणीय वीनस जी, बहुत आभार. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 18, 2013 at 11:07pm

पेड़ ने चुप-चाप एक नजर उन रंगीन पन्नों पर डाली. उसे कहीं दूर अपने भाई-बन्धुओं पर कुल्हाड़ों के चलने की आवाज सुनायी दे रही थी.. ठक् ठक् ठक्..महज इस पंक्ति में ही इस लघु कथा का मर्म समाया हुआ है,अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति पर अत्याचार करते इंसान और वही प्रकृति  मानव को क्या कुछ नहीं देती ----वृक्ष पन्नों को देखते हुए यही सोच रहा है कि इनको बनाने के लिए भी उसके भाई बंधुओं की बलि चढाई गई होगी और कुल्हाड़ी की आवाज से काँप उठता है कि न जाने उसका भी नंबर कब आ जाए और न जाने कब वो भी इन रंगीन पन्नो में तब्दील होकर यूँ कबाड़ी की या कचरे वाले की टोकरी में पंहुच जाए| बहुत मार्मिक लघु कथा जो अपना सन्देश देने में सक्षम है बहुत- बहुत बधाई शुभ्रांशु जी|   

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