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भारत के हम शेर किये नख के बल रक्षित कानन को।
छोड़त हैं कभि नाहिं उसे चढ़ आवहिं आँख दिखावन को।
भागत हैं रिपु पीठ दिखा पहिले निजप्राण बचावन को।
घूमत हैं फिर माँगन खातिर कालिख माथ लगावन को॥

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Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on November 26, 2012 at 2:01pm

आपका हार्दिक स्वागत है आदरणीय गुरुदेव .......लेखन के बारे में आपके कहे का शत प्रतिशत समर्थन करता हूँ .......आपके द्वारा किया गया संशोधन वास्तव में गेयता को गति प्रदान कर रहा है .......आप मेरे गुरु हैं ......शिष्य अपने गुरु से ही तो सीखता है ......

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 26, 2012 at 1:33pm
ठीक कहा है अपने आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी,लेखन में संशोधन एक अनवरत प्रक्रिया है जब तक कि विधा और शिल्प पर रचना 
शब्द, कथ्य और तथ्य से पग न जाय.।छंद के नियम भी उतने ही आवश्यक है, क्योंकि लिपिबद्ध छंद मे त्रुटी क्षम्य नहीं हो सकती ।
आपकी  सापेक्ष टिप्पणियों और सुझावों के लिए साधुवाद । साभार 

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 26, 2012 at 11:50am

वस्तुतः लेखन और उसमें संशोधन एक अनवरत प्रक्रिया है जब तक कि विधा और शिल्प पर कोई रचना शब्द, कथ्य और तथ्य से पग न जाय.

अब देखिये न प्रस्तुत छंद के आखिरी पद में धरती-वन के स्थान पर वसुधा-वन समझ में आ रहा है जो छंद की गेयता को संतुष्ट भी कर रहा है. अतः, इसे संशोधित कर लिया जाय .. .   :-)))

भारत के हम शेर, रखें मन-प्राण सुरक्षित कानन को
मेट रहे बल-पौरुष से दिखते हर संकट कारण को
भाग चला हर शत्रु लिए तन-मोह ढके निज आनन को
विश्व कहे, हम वीर खरे दिल से रखते वसुधा-वन को


यह सवैया-रचना हर तरह से आपकी रचना है, भाई अजीतेन्दु. हम पाठकगण उसे निहार कर अपने हिसाब से सजाते भर हैं. रचनाओं पर ऐसे मंतव्य पाठकीय हुआ करते हैं.

शुभेच्छाएँ

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on November 26, 2012 at 11:27am

आदरणीय गुरुदेव .........अत्यंत सुन्दर ......अपने शिष्य के प्रति ये आपका स्नेह है .....आपके और मेरे, दोनों के सम्मिलित प्रयास से ये सवैया लिखा गया .....यह विचार ही मन को बहुत आनंदित कर रहा है  .....आपका हार्दिक आभार .........


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 26, 2012 at 11:13am

भाई अजीतेन्दुजी, आपकी कोशिश रंग लायी है. इस प्रयास पर आपको हृदय से धन्यवाद और अतिशय बधाइयाँ.

आपका प्रयास, आपकी लगन और आपका सतत अध्ययन आश्वस्त तो करते ही हैं अन्य रचनाकर्मियों के लिये एक उन्नत उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं कि मात्र लेखन और उनका प्रस्तुतिकरण ही नहीं, संयत साहित्य-साधना और उचित अध्ययन भी उतनी ही आवश्यक है. बिना विधा की यथोचित जानकारी के लेखनकर्म अपना तथा पाठक दोनों के समय की बरबादी का कारण हैं. 

मैंने आपके सुगढ़ प्रयास पर अपने मंतव्य दिये हैं. अवश्य बताइयेगा, अपना मिलजुल हुआ प्रयास कैसा बन पड़ा है -

भारत के हम शेर, रखें मन-प्राण सुरक्षित कानन को
मेट रहे बल-पौरुष से दिखते हर संकट कारण को
भाग चला हर शत्रु लिए तन-मोह ढके निज आनन को
विश्व कहे, हम वीर खरे दिल से रखते धरती-वन को

शुभेच्छाएँ... .

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on November 26, 2012 at 8:51am

आदरणीय गुरुदेव .......आपका हार्दिक आभार ..........आपने पहली पंक्ति के हिंदी के प्रारूप को ही बाकी कि पंक्तियों में भी बनाये रखने को कहा है ......कृपया इन पंक्तियों पर विचार करें .......

भारत के हम शेर किये नख के बल रक्षित कानन को।
चीर दिया हर बार सदा बढ़ते हुए संकटकारण को।
भाग चले रिपु पीठ दिखा ढकते निजप्राण व आनन को।
हाल सुना अब हैं फिरते सब कालिख माथ लगा वन को॥

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on November 26, 2012 at 8:36am

आदरणीय रक्ताले सर .......आपका बहुत-बहुत धन्यवाद ......आपने जो शब्द सुझाये हैं बिलकुल उनका उपयोग भी हो सकता है .........

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on November 26, 2012 at 8:28am

 हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण सर ........

Comment by कुमार गौरव अजीतेन्दु on November 26, 2012 at 8:27am

आदरणीय कुशवाहा सर ........आपका बहुत-बहुत धन्यवाद ........

Comment by Ashok Kumar Raktale on November 25, 2012 at 8:18pm

आदरणीय गौरव जी 

                     सुन्दर मदिरा सवैया के लिए बधाई स्वीकारें. दूसरी पंक्ति में कभि नाहि कि जगह कबहूँ न  का उपयोग किया होता तो और भी सुंदरता बढ़ जाती ऐसा मुझे लगता है. 

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