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वक़्त का वज़ूद

वक़्त की बेलगाम रफ़्तार का वज़ूद
दिखता है चेहरे की गहराती लकीरों में
या मिलता है जीवन की भूलभुलैया में
स्नेहसिक्त माँ की आँचल में मौज़ूद
है अब भी मेरे होने की महक
सन्नाटों में गूँजती है मेरी चहक ।
चलती थी एक गुड़िया उँगलियों को थामे
उन काँपती बेजान हाथों की नरमी
और छुपी उनमे उनके नेह की गरम
उन्हीं थापों से बीतती हैं रातें ,हँसती है शामें ।
चराचर का भेद समझा जब ज्ञानदीप से
जीवन को गुज़रता देखा सामने से
अतीत के गर्त में चाहे सब कर दो विसर्जित
अभिन्न जनों को जोड़ता हृदय-तार
अखंडित रहता ,झेलता समय की मार
कुछ काल खंड सदा रहते दिल में सुसज्जित ।

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Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 3, 2012 at 11:17pm

स्नेहसिक्त माँ की आँचल में मौज़ूद
है अब भी मेरे होने की महक 

sundar abhivyakti, badhai.

Comment by kavita vikas on March 3, 2012 at 5:47pm

hearty thanks to all of you who liked this poem .

Comment by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 3, 2012 at 1:26pm

गहन भावों से सजाई हुई रचना के लिए हार्दिक बधाई|

Comment by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 3, 2012 at 11:43am

atisundar. rachna , bha gai, badhai

Comment by CA (Dr.)SHAILENDRA SINGH 'MRIDU' on March 3, 2012 at 11:26am

सुंदर रचना   बधाई स्वीकार करें 


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on March 3, 2012 at 11:00am

बहुत सुन्दर कविता, बधाई स्वीकार करें.

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